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कहानी संग्रह

खड़े हुए प्रश्न

रमेश पोखरियाल निशंक


खड़े हुए प्रश्न

 

 

 

 

 

रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

 

 

 

 

 

विनसर पब्लिशिंग कं० 

8, प्रथम तल, के.सी. सेंटर

4, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून - 248 001

Website: www.winsar.org

Email : winsar.nawani@gmail.com

ISBN : 81-86844-1-9

संस्करण : 2006

आवृत्ति, 2008, 2015

 

 

सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी जिस प्रखरता से डॉ. निशंक साहित्य के क्षेत्र में लगातार संघर्षरत हैं, वह आम आदमी के बस की बात नहीं है। मुझे डॉ. निशंक की संघर्षशीलता और दृढ़ इच्छाशक्ति पर पूर्ण विश्वास है कि वह अपने राजनैतिक जीवन की व्यस्तताओं के उपरांत भी अपनी लेखनी के माध्यम से आम जनमानस की भावनाओं को उभरकर समाज एवं देश के सामने ऐसे प्रश्न खड़े करते रहेंगे, जिनके उत्तर के लिए कभी न कभी जिम्मेदार व्यक्तियों को अपने कर्तव्यों का एहसास जरूर हो जाएगा।"

भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी

पूर्व प्रधानमंत्री

('खड़े हुए प्रश्न' के विमोचन के अवसर पर, मई 2007)

 

 

 

 

अपनी बात

पाठकवृंद! मेरे काव्यखंडों और कहानी संग्रहों को आपका जो स्नेह मिला, उसी का परिणाम यह कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह 'खड़े हुए प्रश्न' में जन-जीवन के सामने सामाजिक, आर्थिक, सहित तमाम व्यवस्थाओं के जो प्रश्न खड़े हैं उन्हीं के साक्ष्य के रूप में यह कहानी संग्रह आपके हाथों में है। हर आदमी की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं, कभी वह खुश नजर आता है तो कभी गम में डूबा दिखाई देता है, किसी न किसी उलझन में आदमी उलझा है, कुछ कम-कुछ ज्यादा। इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ सत्य घटनाओं पर आधारित हैं जो आज घट रहा है उसे मैंने शब्दों के रूप में पिरोने भर की कोशिश की है।

कानून व्यवस्था का प्रश्न हो या पारस्परिक संबंधों के विषय हों, दैवीय आपदा हो या प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम देन, वह भी किसी न किसी रूप में कहानी का हिस्सा बना है। बेरोजगारी और बेगारी एक हँसते-खेलते युवा को किस तरह विचलित करती है, किस प्रकार छोटी-छोटी बातों में आज अच्छे खासे परिवार बर्बाद होते नजर आ रहे हैं और किस प्रकार अधिकारों का लोग दुरुपयोग करते हैं तथा किस प्रकार स्वार्थ में डूबी राजनैतिक महत्वाकांक्षा अपने ही खून के अंश को भी कठघरे में खड़ी करती है। यह भी इस संग्रह में पढ़ने को मिल सकेगा। आज इन सारी बातों के होते हुए भी अच्छे लोग खोये नहीं हैं। लोगों में आज भी संवेदना जीवित है और उसी संवेदना के आधार पर समाज में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले लोग भी दिखाई देते हैं। कुछ लोगों की प्रवृत्ति केवल नकारात्मक होती है, जिन्हें बने-बनाये काम को बिगाड़ने में ही आनंद आता है। व्यवस्थाओं पर चोट करती ये कहानियाँ कई प्रश्नों को लिए खड़ी हैं।

मेरा विश्वास है, यह संग्रह भी आपको रुचिकर लगेगा। मैं आप सभी सुधी पाठकों का आभारी हूँ और दिल की गहराइयों से आपका अभिवादन करता हूँ।

-रमेश पोखरियाल 'निशंक'

10 दिसंबर 2006

37/1 विजय कालोनी

देहरादून (उत्तरांचल) हिमालय


अनुक्रम

 

खड़े हुए प्रश्न

लक्ष्य

उम्मीद

बीनू

अपाहिज

तकदीर

अभिशप्त

कुछ नहीं ज़िंदगी

नियति

उत्सर्ग

अविश्वास


खड़े हुए प्रश्न

सुरेश बाबू को देबू से बहुत लगाव था, मोहनगढ़ से लौटने के बाद कल ही उसका पत्र मिला। साधारण सा लगने वाला देबू कैसी सोच रखता है लेकिन कैसी-कैसी विडंबनाओं से घिरा है, उसका जीवन। गोरा-चिट्टा, लंबा-चौड़ा, पर चेहरे पर अंतहीन उदासी के से भाव। आज ही तो उसका पत्र आया था जिसे पढ़कर सुरेश बाबू की आँखें भर आई- 'अपने बूढ़े माँ-बाप की मैं अकेली संतान हूँ। उनकी आशाओं, आकांक्षाओं का एक मात्र सहारा। मैं अपनी मजबूरी में पहाड़ छोड़ शहर आ गया हूँ, किसी दुकान पर काम कर रहा हूँ। दिन-रात कमर तोड़ मेहनत कर रहा हूँ लेकिन केवल अपना ही पेट पाल रहा हूँ। अपना पेट तो जानवर भी पाल लेते हैं, पर मैं जानवरों से भी गया गुजरा हो गया हूँ।

गांव में बूढ़े माता-पिता को मैं देख नहीं पा रहा हूँ, जब तक उनमें जान थी, मेहनत मजदूरी कर लेते थे पर अब तो वह बात भी नहीं रही। इस बुढ़ापे में मैं उनका सहारा भी नहीं बन पा रहा हूँ, उनके किसी काम नहीं आ सका। कभी सोचता हूँ गांव जाकर उनकी सेवा करूँ, परंतु यह सोचना भी मेरे लिए अभिशाप है। गांव जाकर फिर उन पर बोझ नहीं बनूँगा। पर घर में कोई उनको पानी देने वाला भी नहीं है। दिन-रात मुझे यही चिंता खाये जा रही है। कई बार सोचता हूँ कि गांव लौट जाऊँ पर वहाँ जीविका का कोई साधन भी तो नहीं। गांव में दो-चार खेत हैं पर वो भी बंजर पड़े हैं, उन पर गेहूँ-धान तो रहा दूर कोदा-झंगोरा भी पैदा नहीं होता। मैं अपने गांव का पहला लड़का हूँ जिसने दसवीं पास किया है। गांव वाले सोचते हैं कि देबू लिख-पढ़ गया है न जाने कितना बड़ा आदमी बनेगा।

पिछली बार गांव की सिंचाई गूल के बारे में गांव वालों ने मुझे जिला मुख्यालय भेजा था। संबंधित विभाग से लिखा-पढ़ी कर सिंचाई गूल निर्माण की स्वीकृति मिल गई तो गांव वाले खुशी से फूले न समाये। मैंने गूल के संबंध में कई बार ऑफिसों के चक्कर लगाये। जब भी खर्चा करके जिला मुख्यालय जाता तो पता चलता कि अधिकारी 'टूर' पर हैं। मेरी दौड़-भाग तब सफल होती दिखी जब अधिकारियों ने हमारी सुनी और हमारे गांव के गूल के लिए सर्वे किया गया। गांव वालों ने मेरी पीठ थपथपाई और मैं खुशी से फूल कर कुप्पा हो गया, लेकिन साल बीत गया कोई सरकारी परिंदा तक गांव में नहीं आया, मैंने फिर दौड़ भाग शुरू की। लोग केवल यही सोच कर खुश थे कि अब हर खेत में पानी पहुँचेगा, अच्छी फसलें होंगी, ऐसी ही कल्पनाएं कर-करके लोग आनंदित हो उठते, लेकिन देखते-देखते यह आशा निराशा में बदल गई।

गूल अभी पूरी बन भी न पाई थी कि जगह-जगह से टूट गई यह गूल एक भी खेत की प्यास न बुझा सकी। लोगों में हलचल मच गई। गांव वालों ने मुझे फिर बड़े अधिकारियों के पास भेजा। मैंने पौड़ी जाकर पता किया तो मालूम पड़ा कि गूल के निर्माण पर लाखों रुपये खर्च हो गए हैं, तब तो मैं और भी हैरत में पड़ गया जब देखा कि गूल के पूरा होने तथा अच्छी बनी होने का गांव की ओर से प्रमाण पत्र भी फ़ाइल में लगा है। कार्यालय के संबंधित बाबू ने कहा- 'अब तो कुछ नहीं हो सकता। गांव के लोगों के पास पैसा है तो स्वयं इकट्ठा कर गूल बना लें। हम तो कुछ नहीं कर सकते।' मैं मुँह लटका कर गांव वापस आ गया।

मन में एक ओर जहाँ गूल को लेकर आक्रोश था वहीं आज एक नई जानकारी से खुशी थी कि सरकार पढ़े-लिखे बेरोजगारों को रोजगार के लिए कर्ज दे रही है। मैंने स्वयं को संभाला। मैं मन में ठान चुका था कि अब मैं भी छोटी-मोटी दुकान गांव में खोलकर अपने पैरों पर खड़ा हो सकूँगा। माँ-बाप की देखभाल भी कर सकूँगा। अब तो पूरे सपनों का संसार मेरे सामने खड़ा था। थोड़ा बहुत खाने पीने लायक हो जाऊँगा तो फिर माँ की इच्छा भी पूरी हो जाएगी, रोज-रोज शादी करने की जो रट लगाई है। उसके कुछ दिन बाद मैं जिला मुख्यालय गया, फार्म भर कर मैंने उद्योग विभाग में दुगने उत्साह के साथ उसे जमा किया। जैसे-जैसे वे कहते गये मैं करता गया और मुश्किल से ही सही पर मेरा प्रार्थना पत्र स्वीकार भी हो गया।

बस मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, पर मुझे पता नहीं था कि इसके बाद भी बैंक के चक्कर काटने पड़ते हैं। कभी ऑफिसों के चक्कर काटने पड़ते हैं तो कभी बैंक के चक्कर काट-काट कर अब मेरे जूते ही घिस गये। यह बात तो सही है कि हमारे गांव में सड़क नहीं, बिजली नहीं, ले दे कर एक प्राइमरी स्कूल है वह भी गांव से काफी दूर है। बच्चे नदी-नालों, जंगली रास्तों की वजह से स्कूल नहीं जा पाते, दस वर्ष के बाद ही स्कूल में भर्ती हो पाते हैं। मैंने तो हाईस्कूल पास अपनी दीदी के ससुराल से किया था, लेकिन आज मैं सोचता हूँ कि मैं भी गांव के अन्य लड़कों की तरह अनपढ़ ही रहता तो ज्यादा अच्छा था। कम से कम माँ-बाप पर कर्ज का भार तो न बढ़ता।

कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी पट्टी व मेरा गांव देश की मुख्य धारा से ही अलग-थलग पड़े हैं, अंग्रेजों ने तो यहाँ कम से कम डाक बंगले तो बनाये। हमारे बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि साल में एक-आध बार अंग्रेज़ घोड़ों पर बैठकर इन गांवों में जरूर आते थे। लोग इन्हें डांडियों पर भी लाते थे, पर आज आजादी के पाँच दशक बाद भी हमारे अपने देश का अदना सा अधिकारी पैदल तो रहा दूर घोड़े पर बैठकर भी इन गांवों में नहीं आ रहा है। आजाद भारत के इन अधिकारियों को जनता के सुख-दु:ख से कोई वास्ता नहीं। मुझे भी बरगलाते रहे कि अभी वहाँ स्थान पर जाकर जांच करेंगे। पर मेरे गांव की सुध किसी ने नहीं ली। पहले लोग कर्जा दे देते थे। उन्हें मैंने बताया था कि जल्द मुझे बैंक से पैसा मिल जायेगा तो मैं एक झटके में कर्ज चुका दूंगा, लेकिन ऑफिसों के चक्कर काटते-काटते मैं गांव वालों का इतना कर्जदार बन गया कि अब गांव वाले मुझसे बात करने से भी कतराने लगे हैं।

इधर जिस दिन कागजात पूरे हुए और मुझे बताया गया कि अब तुम्हें पैसा मिल जायेगा उस दिन मुझमें फिर से एक नया जोश उभर आया था। पर ये क्या? इनकी भाग दौड़ के बाद मिला भी तो आधा ही पैसा, पूरा क्यों नहीं? पूछने पर टका सा जबाब मिला- 'पैसा पास कराने में खर्च नहीं लगता क्या?' आधी रकम हाथ में पाकर तो मेरी कमर ही टूट गई इतने कम पैसों में कौन सा व्यवसाय कर पाऊंगा? इन पैसों से दुकान का सामान और गांव वालों का कर्जा भी नहीं चुका पाऊंगा। गांव वापस पहुँचा तो समझ में नहीं आ पा रहा था कि क्या करूँ क्या नहीं।

आखिरकार सोच समझकर उस पैसे से मैंने गांव वालों का कर्जा चुकाना ही उचित समझा इसके बाद एक बार फिर जीवन के चौराहे पर खड़ा हो गया था। तब से काम की तलाश में हूँ। इधर-उधर भटक-भटक कर दुनिया भर की खाक छान डाली पर कहीं भी काम नहीं मिला। थक हार कर फिर गांव की ओर लौट आया हूँ लेकिन गांव के लोगों का अब मुझ पर से विश्वास उठ चुका है वे मुझे निकम्मा समझने लगे हैं।

उधर बैंक से कर्ज चुकाने के नोटिस पर नोटिस आने लगे। एक दिन एकाएक वारंट लेकर पटवारी का चपरासी मेरे घर पर ही आ धमका। मैं जंगल से लकड़ी लेकर आ ही रहा था किसी ने रास्ते में मुझे बता दिया कि तुमको पकड़ने के लिए पटवारी का चपरासी आया है। लकड़ी का बोझा वहीं फेंकते हुए मैं खेतों को फाँदते हुए रातों-रात वहाँ से भाग निकला। तीसरे-चौथे दिन गांव से शहर आ गया यहाँ दिन पर दिन काट रहा हूँ।

माँ-बाप को झूठी खबर भेजी थी कि मैं यहाँ नौकरी पर लग गया हूँ। कितने खुश हुए होंगे वे, किसी के पास रैबार दिया था उन्होने- 'बेटा! हमें कुछ नहीं चाहिए पर सरकारी कर्जा जल्दी से चुका दो, गांव-गली में बदनामी हो रही है, कर्जा चुकाने पर घर तो आ सकेगा। बैंक का कर्जा भी ब्याज दर ब्याज बढ़ता ही जा रहा है कैसे चुका पाउंगा मैं इसे। समझ में नहीं आता? गांव जाता हूँ तो पटवारी जेल भेजता है और नहीं जाता हूँ तो बूढ़े, असहाय माँ-बाप का बेबस व लाचार चेहरा आँखों में घूम जाता है, जिनको देखने के लिए भी तरस गया हूँ न जाने कब डैम तोड़ देंगे। कैसी किस्मत है मेरी, कितना अभागा हूँ मैं।'

उसकी चिट्ठी पढ़कर सुरेश बाबू की आँखों से आँसू निकल आये। उसके पत्र में देबू का अक्स जीवंत हो उठा। उसकी तस्वीर पत्र में लिखे शब्द-शब्द में उभरती सी प्रतीत होती थी, मानो एक साथ कई सवाल पूछ रही हो। कौन हैं इन अव्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार? कौन सरकारी तंत्र पर लगे वर्षों पुराने भ्रष्टाचार के जंक को धोएगा? कौन एक गरीब नौजवान को जीने लायक रास्ता दिखा सकेगा? कौन लड़ेगा इस अव्यवस्था के खिलाफ? कौन फाइलों का पानी जमीन में ला सकेगा? और कौन रोकेगा पहाड़ से युवाओं का पलायन?

सुरेश बाबू खुद अपने को प्रश्नों के कठघरे में खड़े पाकर निरुत्तर थे। लाचारगी के भाव उनकी 'रूह' को ही अपने आगोश में ले चुके था। कुव्यवस्था, अराजकता, भ्रष्टाचार का राक्षसी अट्टाहास उन्हें मुँह चिढ़ा रहा था और देबू की 'जबाब दो' की चीख जैसे कहीं नेपथ्य में गूँजती सी सुनाई दे रही थी।


लक्ष्य

शेखर को इस बस्ती में आकर एक सुकून सा मिलता था। उसे इन गरीब बच्चों को पढ़ाकर आत्मिक शांति का सुखद अहसास होने लगा था। वह नहीं भूलता था कि वह भी निर्धन परिवार से ताल्लुक रखता है जिसके माता-पिता बचपन में ही चल बसे हों, यदि उसे भी किसी ने सहारा न दिया होता तो क्या वह इज्जत से दो रोटी कमाने लायक होता? लेकिन रानी को यह सब अच्छा नहीं लगता। शेखर की इन गतिविधियों से उसे सख्त नफ़रत है जब भी शेखर घर देरी से पहुँचता तो रानी का चेहरा तमतमा जाता। ईश्वर ने अच्छा खासा परिवार दिया है। दो प्यारे-प्यारे बच्चे और सामान्य खुशहाल जिंदगी व्यतीत करने के लिए सब कुछ, लेकिन छोटी-छोटी बातें अक्सर घर की सुख-शांति को खत्म कर देती हैं। इससे घर का वातावरण कभी-कभी विकराल हो जाता है।

अभी पिछले हफ्ते की तो बात है शेखर इन गरीब बच्चों को पढ़ाकर जब घर पहुँचा तो रानी ने उसके पहुँचते ही पूरे घर को सिर पर उठा लिया। शेखर ने समझाने का प्रयास किया लेकिन उसकी कोशिशें नाकाम हो गईं- 'आज ज्यादा मत बोलिए मुझसे। मुझे कुछ नहीं सुनना। कुछ बोले तो...।' रानी ने गुस्से में कहा।

'तो क्या कर लोगी?' पत्नी के तल्ख स्वर का जबाब देकर शेखर चुप हो गया।

'मैं क्या करूंगी ये तुम्हें पता लग जाएगा।' रानी के स्वर में और अधिक तल्खी आ गयी थी।

शेखर गुस्से से तमतमा गया था लेकिन दूसरे कमरे से बच्चों को झाँकते देख वह चुप हो गया और धीमी आवाज में बोला- 'तुम्हें अचानक क्या हो जाता है रानी। छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ बना लेती हो, चलो खाना लगाओ बच्चे भी भूखे होंगे। मैं मुँह-हाथ धोकर आता हूँ, कुछ सोचा-समझा करो।

मैं क्यों सोचूँ! सोचने का सारा ठेका तो आपने ले रखा। मैं तो नौकरानी हूँ इस घर की। जहाँ गये थे उन्होंने खाना नहीं खिलाया क्या? घर की याद तो आपको तभी आती है जब कोई काम होता है।'

रानी किसी भी तरह चुप होने को तैयार न थी लेकिन शेखर किसी तरह उसका गुस्सा शांत करने की कोशिश करता रहा। बच्चों के सहमे चेहरे उसे कुछ ज़ोर से भी कहने से रोकते थे। उसने रानी को हर संभव समझाने का प्रयास किया लेकिन रानी के व्यंग्यबाणों की वर्षा रुकने का नाम नहीं लेती थी।

'तुमने दिया ही क्या है मुझे? तुमने तो बाहर वाले लोगों के सामने हमेशा मेरी उपेक्षा की।

'देखो रानी मैंने कभी भी तुम्हारी उपेक्षा नहीं की। तुम्हारा यह सोचना गलत है। फिर भी तुम ऐसा सोचती हो तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ मैं कोशिश करूंगा कि मुझसे ऐसा न हो।'

'अपनी बातों से मुझे बहलाने की कोशिश मत करो। आखिर समझते क्या हो तुम, मुझे नौकरानी बना कर रखा है। बड़े समाजसेवी बने फिरते हो।' रानी और ज़ोर से चिल्लाने लगी थी, उसे ये भी ध्यान नहीं रहा कि उसकी ये आवाज पड़ोसियों के घर भी पहुँच रही होगी।

'रानी! ऐसा नहीं है मैं तुम्हें पूरा सम्मान देता हूँ। यह सही है कि मैं घर के काम में बहुत अधिक समय नहीं दे पाता। यह भी सच है कि मैं बच्चों को अधिक नहीं देख पाता। लेकिन मैंने हमेशा... और फिर घर में काम करने वाला लड़का भी है।'

शेखर ने अपने स्वर को संयम रखते हुए कहा।

'नौकर भी तो दूसरे दिन भाग जाते हैं।

अब रानी के स्वर में हताशा थी।

'आखिर नौकर भी तो इंसान होते हैं। उनके साथ व्यवहार ठीक रखेंगे तो वो जरूर टिकेंगे। हर इंसान प्यार का भूखा होता है चाहे वो बड़ा हो या छोटा।'

शेखर के इस वाक्य ने मानों आग में घी का काम कर दिया था। 'तो मुझे ढंग का व्यवहार करना नहीं आता। तुम्हारे लिए तो सारी दुनिया अच्छी है। तुम तो सारी दुनिया में प्यार बांटने चले हो, एक घर वालों से ही प्यार से बात करना नहीं आता तुम्हें। अब नौकरों को भगाने का दोष भी मेरे ऊपर मढ़ा जा रहा है। हे भगवान ये घर तो नरक बन गया है मेरे लिए। ये बच्चे नहीं होते तो आज मैं जान ही दे देती।'

'बच्चों की कितनी चिंता है तुम्हें? अगर बच्चों का जरा भी ध्यान होता तो छोटी-छोटी बात पर बातों का बतंगड़ न बनाती।' शेखर ने आवेश में कहा और बच्चों के कमरे में चला गया।

दोनों बच्चे सहमें भूखे ही सो गये थे, शेखर ने भी एक गिलास पानी पिया और बच्चों के ही कमरे में लेट गया लेकिन तनाव के कारण उसे नींद नहीं आयी। वह बार-बार यही सोचता रहा कि वह क्या गलत कर रहा है, आखिर उसे यह किस बात की सजा मिल रही है। अगर अपने वेतन का कुछ हिस्सा व समय वह उन गरीब बच्चों पर लगा भी देता है तो उसमें बुराई कहाँ है?

रानी को ये सब उसका पागलपन लगता है। सामाजिक कार्यों में सम्मिलित होना वह समय की बर्बादी व मूर्खता समझती है। अगर ऐसा ही तनावपूर्ण माहौल रहा तो वह कैसे काम कर पायेगा? शेखर मन ही मन सोचने लगा।

यही सब सोचते हुए तो उसने विवाह न करने का मन बनाया था। घरवालों ने समझाया था कि जीवन साथी के आने से शक्ति दो गुनी हो जाती है, लेकिन यहाँ उल्टा हो गया। कैसे समझाऊँ रानी को? एक ओर बच्चे और परिवार, रानी का रोज-रोज का कलह, और दूसरी ओर,…। क्या करूँ कुछ भी तो वह समझ नहीं पा रहा था।

कुछ दिनों तक शेखर व रानी के बीच बोल-चाल बंद रही फिर धीरे-धीरे वातावरण सामान्य तो हो गया पर रोज-रोज की कलह से तंग आकर शेखर ने पिछड़ी बस्ती के बच्चों को पढ़ाना छोड़ दिया। बस कॉलेज जाता और समय से घर पहुँचता। अपने बच्चों को पढ़ाने के बाद गुमसुम घुटन भरे क्षणों को निकालने लगा, दूसरी ओर रानी के व्यवहार में जमीन आसमान का फर्क था। वह खुश रहने लगी थी यदा-कदा वह शेखर को छेड़ लेती थी- 'चिंता मत करो, तुम नहीं तो कोई न कोई उन बच्चों की चिंता कर रहा होगा' और शेखर था जो गुस्से में कहता - 'तुम्हें क्या लेना देना उन गरीब बच्चों से, तुम तो अपना काम करो।'

आज शेखर को अपने ही कॉलेज में देर हो गयी। वह रास्ते भर में सोचता आ रहा था और घर में होने वाली आशंका से उसका गला सूख रहा था। जब वह घर में पहुँचा तो उसे रानी घर में नहीं मिली, पूछने पर पता चला कि बच्चों को स्कूल भेज कर स्वयं भी घर से निकल जाती है। फिर तो क्या था आज तो शेखर का पारा आसमान चढ़ गया था।

बेसब्री से वह रानी की प्रतीक्षा करने लगा, तभी बच्चे स्कूल से आ गये। रानी घर नहीं पहुँची तो उसकी चिंता बढ़ने लगी अभी तक तो गुस्से से उसका पारा चढ़ा हुआ था, किंतु अब उसके माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ने लगी।

वह सोच-सोच कर परेशान हो गया कि आखिर रानी जाती कहाँ है? और आज तो हद हो गयी, उसके मन में तमाम प्रश्न उठने लगे। इन प्रश्नों ने तो उसके अंदर तूफान सा लाकर खड़ा कर दिया था।

अचानक टेलीफोन आया - 'हैलो शेखर बाबू!'

'हाँ बोल रहा हूँ।'

'शेखर बाबू आप जल्दी से सिविल अस्पताल आ जाइये आपकी पत्नी...।

शेखर के पाँव तले जमीन खिसक गयी, बच्चों को घर पर छोड़कर दौड़ते-हाँफते अपने स्कूटर से किसी तरह हड़बड़ाहट में चिकित्सालय पहुँचा, देखा वहाँ बहुत भीड़ इकट्ठा है। स्कूटर को एक ओर खड़ा कर भीड़ को तेजी से चीरता हुआ वह आगे पहुँचा, उसकी आँखें बेसब्री से रानी को ढूंढ रही थी। तभी शेखर का परिचित एक डॉक्टर मिला तो शेखर ने पूछा - 'क्या हुआ पुनीत, कैसी है वो?' वह तेजी से कदम आगे बढ़ाते बोले जा रहा था और पुनीत था कि पता ही नहीं शेखर पूछ किसके बारे में रहा है। वह सोच ही नहीं पा रहा था कि आखिर शेखर इतना परेशान क्यों है।

'क्या हुआ शेखर मैं समझ नहीं पाया?'

'अरे तुम्हें पता नहीं? रानी यहाँ अस्पताल में है।

'लेकिन क्यों?'

'अरे तुम ढूंढों तो उसे? और भीड़ में तभी पिछड़ी बस्ती के लोग बड़ी संख्या में दिखाई दिए जहाँ शेखर बच्चों को पढ़ाने और उनकी मदद करने जाता था उसकी समझ में नहीं आ रहा था यह सब हो क्या रहा है?

शेखर को देख बच्चे-बूढ़े सब उस पर चिपक गये... 'शेखर बाबू आज रानी बीबी नहीं होती तो पूरी बस्ती, धू-धूकर राख़ हो गयी होती, न जाने कितने बच्चों की जान चली जाती। अपनी जान जोखिम में डालकर बीबी ने कितने बच्चों को बचा लिया, कई लोगों को बचाते-बचाते बीबी स्वयं भी झुलस गयी और अचानक हाथ-पाँव लड़खड़ाते जमीन पर गिर पड़ी। बस तब से अभी तक होश में नहीं आयी, हम बस्ती के लोग सब बीबी के होश में आने की दुआएँ माँग रहे हैं।'

लोगों की भारी भीड़ के साथ शेखर रानी के पास पहुँचा, रानी के बुरे हाल देखकर उसका दिल घबरा गया। उसने रानी को हिलाया थपथपाकर कुछ बोलने को कहा, पर बेहोश रानी को क्या खबर कि शेखर उसके पास खड़ा है। तनाव से भरे शेखर को पसीना छूट रहा था वह दौड़ता हुआ डॉक्टर लेकर आया, डॉक्टरों ने शेखर को धैर्य बँधाते हुए कहा कि गहरा सदमा है कुछ समय लगेगा चिंता की कोई बात नहीं।

डॉक्टरों की दिलासा पर शेखर कुछ शांत तो हुआ लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी दूर बस्ती में रानी अचानक कैसे पहुँच गयी?

उसने बस्ती के बसंतू चाचा से पूछा-

'चाचा ये सब कैसे हुआ और रानी वहाँ कैसे पहुँच गयी उसे तो बस्ती का ठीक से पता भी नहीं था।'

'शेखर बाबू जब बहुत दिनों तक आप बस्ती में नहीं आये तो हमें चिंता हुई न जाने आपका स्वास्थ्य कैसा होगा। हम सब लोग मिलकर आपकी कुशल क्षेम पूछने आपके घर आये थे। आप नहीं मिले तो हमें बीबी जी मिली हमने सारी बातें बतायी कि हम क्यों आये हैं... उस दिन जब बीबी ने काफी देर तक हमसे बात की तो बस तभी कह दिया कि आज से शेखर बाबू की जगह बस्ती की सेवा में वह आया करेंगी। बस तब से वह लगातार हमारे बीच आकर बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ हमारी चिंता भी करती है। सारी बस्ती को बीबी से गहरा लगाव हो गया। बस्ती को लगता है जैसे उन्हें उनकी सच्ची माँ मिल गयी। अभी पिछले महीने जब शिवा चाचा की बेटी की शादी हुई तो उन्होंने स्वयं चंदा इकट्ठा कर उसके हाथ पीले किए। भरत चाचा का आप्रेशन हुआ तो उनकी कृपा से हो पाया, दिल्लू भाई के बच्चे की जान बचायी, क्या बताएं आप लोग तो जैसे भगवान बनकर आये हो हमारे लिए। बीबी ठीक हो जाये बस और कुछ नहीं चाहिए हमें...।'

यह सब सुनकर शेखर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कहाँ तो रानी के बारे में वह क्या-क्या सोचता था, लेकिन रानी ने तो...।

शेखर की आँखों में आँसू छलक आये थे, उसे लगा जैसे जीवन की तपस्या सफल हो गयी, कितनी गहरी निकली रानी, इतने दिनों से काम कर रही है और मुझे भनक तक नहीं लगने दी...।

शेखर की आँखों के आँसू देख सब लोगों ने उन्हें घेर लिया- 'बाबू आप चिंता न करो भगवान सब ठीक करेगा हमारी रानी बीबी जल्दी ठीक हो जायेगी। भगवान भी तो न्याय करेंगे।' और शेखर बाबू ने भी आँखें बंद कर भगवान से रानी के जल्द ठीक होने की प्रार्थना करने लगा।

उम्मीद

घर में घुसते ही देवेश ने बैग को कमरे के एक कोने में पटका और धम्म से तख्त पर बैठ गया। बेचारगी के भाव उसके चेहरे पर साफ नज़र आ रहे थे। थोड़ी ही देर में वह झटके से उठ खड़ा हुआ और तेज कदमों से कमरे में चहलकदमी करने लगा। उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था कि आज भी उसका काम नहीं हुआ, उसके काम के बारे में उससे पूछने की घर में कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।

कुछ देर बाद देवेश निढाल होकर, आँखें बंद कर तख्त पर लेट गया, उसका मासूम और बुझा चेहरा देखने लायक था। दो वर्ष पूर्व जब यही देवेश गांव से शहर आया था तो उत्साह से सराबोर था। भैय्या ज्यादा दिन आप पर बोझ नहीं बनूँगा, बस कहीं नौकरी दिलवा दीजिए मन लगाकर मेहनत करूँगा। बी.ए. पास कर लिया है टाइपिंग भी जानता हूँ। लेकिन आज दो वर्ष बाद भी देवेश नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है उसके चेहरे का तो मानो रंग ही उड़ गया।

थोड़ी देर में ही देवेश उठा और बड़े भैय्या रामगोपाल के सामने लगी कुर्सी में बैठ गया उसके मुँह से कोई भी शब्द नहीं निकल रहे थे, लेकिन उसकी सवालिया निगाहें रामगोपाल जी से कुछ पूछ रही थी। दोनों के बीच पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए रामगोपाल जी ने पूछा- 'कोई सहयोग नहीं किया उन्होंने?'

देवेश ने जैसे उनकी बात को अनसुना सा कर लिया और मुँह फेर कर खड़ा हो गया। उसकी इस हरकत पर रामगोपाल को क्षण भर के लिए गुस्सा तो आया परंतु उसकी मनःस्थिति समझते हुए उन्होंने संयम बरतते हुए कहा- 'अरे कुछ बोलोगे भी या नहीं? क्या हुआ?'

उन्होंने यह कहते हुए जैसे ही उसका हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर मोड़ा तो देखा कि उसकी आँखों से आंसुओं की बरसात हो रही थी, अश्रुधार गालों से होते हुए उसकी कमीज तक को भिगो चुकी थी।

रामगोपाल जी ने उसे सांत्वना देने की कोशिश की तो वह कुछ सुनने के बजाय फूट-फूट कर रो पड़ा।

'स्वयं तो दु:खी हूँ ही, आप को भी दु:ख पहुँचा रहा हूँ, मैं आज ही गांव वापस लौट रहा हूँ, लगता है मेरा काम नहीं होगा।'

रामगोपाल जी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा- 'तुम जैसा मेहनती और ईमानदार लड़का जल्दी निराश होकर हार मान जाएगा तो कायर और बुजदिल लोग भी कल तुम पर हंसेंगे, धैर्य रखो तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी।'

'यही दिलासा दे-दे कर आपने दो सालों से यहाँ रोका है। मैं आप पर अधिक दिनों तक बोझ नहीं बनना चाहता भैया! देवेश की आवाज यह कहते हुए और बोझिल हो गयी थी।

'चिंता मत करो देवेश, तुम्हारे लिए एक और जगह बात की है वहाँ काम तो हो जाना चाहिए। अच्छा ये बताओ जहाँ आज गए थे क्या उन्होंने मना कर दिया या कोई आश्वासन दिया है?' रामगोपाल जी ने फिर से पूछा।

'वे क्या आश्वासन देते, ढंग से बात ही कर लेते इतना ही काफी था।' देवेश के चेहरे पर निराशा के बजाए अब आक्रोश झलक रहा था।

'लेकिन तुम्हारे सामने ही तो मैंने उसके फोन पर बात की थी। तुमने बता दिया था कि तुम्हें मैंने भेजा है।'

'सब बता दिया था मैंने, लेकिन उन्होंने आँख उठाकर भी नहीं देखा।' यह कहते हुए देवेश की आँखें फिर डबडबा गई।

रामगोपाल जी सोचने लगे, क्या देवेश वास्तव में अंदर से हार मान चुका है या परिस्थितियों ने उसे टूटने पर मजबूर कर दिया? कितनी कठिनाई से मेहनत मजदूरी कर-कर के पढ़ाई का खर्चा निकाल पाता था। जैसे-तैसे पढ़ाई पूरी की किंतु दो साल हो गए थैले में डिग्री लिये मारा-मारा फिर रहा है नौकरी के लिए। आश्वासन हर जगह मिलता है लेकिन नौकरी कहीं नहीं। क्या नहीं है उसके पास? योग्यता, कर्मठता और हर प्रकार से प्रभावशाली व्यक्तित्व। बस कमी है तो केवल यह कि उसके पास रिश्वत के लिये रुपया या कोई बड़ा जुगाड़ नहीं है। लिखित परीक्षाएँ तो उसने कई जगह पास की लेकिन इंटरव्यू में बिना लिए-दिए रह जाता है। हर इंटरव्यू के बाद ऐसा टूटता है जैसे किसी ने वज्रपात कर दिया हो।

पिछले दो वर्षों से सुबह होते ही देवेश घर से निकल जाता एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस के चक्कर पर चक्कर काटता। जहाँ कहीं भी उसे रिक्त पदों का पता चलता वहीं आवेदन कर आता, लेकिन साक्षात्कार की सभी औपचारिकताओं के बाद भी सफलता उसके हाथ से हर बार फिसल जाती। इन दो वर्षों में देवेश को लग गया कि सफल होने के लिए योग्यता ही काफी नहीं वरन् सिफ़ारिश भी जरूरी होती है।

रामगोपाल जी गहरी सोच में डूब गए। उन्हें सोचते-सोचते वह दिन याद आ गया जब देवेश गांव से यहाँ आया था और बहुत खुश था। एक ही सांस में उसने सारी बातें बता दी थी।

भैया! कुछ दिन पूर्व जिस कार्यालय के लिए लिखित परीक्षा पास की थी वहाँ के बड़े अधिकारी से मिलने गया था न जाने क्यों वो मुझसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे घर पर आने को कहा। आज मैं उनके घर पर गया था उनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, उन्होंने कहा कि एक घंटा मैं उन्हें आकर पढ़ा लिया करूँ। लगता है अबकी बार मेरा काम तो हो ही जाएगा।'

खुशी उसके चेहरे से साफ झलक रही थी उसके बाद देवेश रोज ही वहाँ जाने लगा था बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ घर के बाहर के छोटे-मोटे काम भी कर दिया करता। साहब भी देवेश पर बहुत खुश थे। इसी बीच देवेश का साक्षात्कार भी हो गया। साक्षात्कार के बाद बहुत खुश था देवेश। कुछ दिनों में अखबार में परिणाम निकला तो चयनित अभ्यर्थियों में अपना नाम देखकर उसे लगा जैसे उसे दुनियाँ की सारी धन दौलत मिल गयी।

अब नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा में वह एक-एक दिन गिनता रहा, पर यह क्या नियुक्ति पत्र आने से पूर्व ही उस पूरी चयन प्रक्रिया को ही निरस्त कर दिया गया। अनियमितता का बहाना बनाकर एक ईमानदार अधिकारी को कटघरे में खड़ा किया गया जबकि सच्चाई यह थी कि चयन समिति ने निष्पक्ष आधार पर साक्षात्कार लेते हुए बड़े लोगों के चहेतों के लिए की गई सिफ़ारिशों को दर-किनार कर दिया था, नतीजतन इस पूरे साक्षात्कार को ही शीर्ष अधिकारियों द्वारा निरस्त करा दिया गया। इस घटना के बाद देवेश अंदर तक टूट चुका था। उसे लगा क्या सचमुच कभी वह योग्यता के आधार पर नियुक्ति नहीं पा सकेगा, क्या वह यूँ ही जिंदगी भर दर-दर भटकता रहेगा।

पर आज फिर अधिकारी ने देवेश को ढांढस बँधाया था कि वह चिंता न करे। देर होगी पर अंधेर नहीं। मैं फिर से इस साक्षात्कार को कराऊंगा, मुझे भरोसा है अब कोई तुम्हारी योग्यता को नहीं नकार सकेगा।

बेबस देवेश एकटक अधिकारी के चेहरे को निहारता फिर कहीं खो सा गया था और अंदर मचे तूफान को एकबार जैसे-तैसे वह शांत करने की कोशिश में जुट गया।

बीनू

धारचूला से पिथौरागढ़ का संकरा और सर्पीला मोटर मार्ग, कभी नीचे गोरी गंगा के दर्शन होते हैं तो कभी काली गंगा के। इन दोनों का संगम स्थल बहुत ही सुंदर, किसी का भी हृदय मोह लेने वाला। मुंस्यारी की ओर से आ रही गंगा और धारचूला की ओर कैलाश से आती काली गंगा जौलजीवी में एक दूसरे में विलय हो जाती है। गोरी गंगा अपने स्वरूप को काली गंगा में समाहित कर अद्भुत संगम में परिवर्तित हो जाती है जो आगे पंचेश्वर तीर्थ तक अपने अनुपम प्राकृतिक व आध्यात्मिक सौंदर्य को बिखेरती हुई प्रकृति प्रेमियों और सैलानियों को अपने मोहपाश में बांध लेती है। इन चित्ताकर्षण नजारों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कुदरत ने सारी नैसर्गिक सुंदरता जैसे यहाँ उड़ेल कर रख दी हो।

आनंद गांव व पहाड़ों की चोटियों के बारे में कुछ न कुछ बताता जा रहा था, एकाएक संकरी घाटी आई तो मालपा प्रकरण की चर्चा शुरू हो गयी। ओह! कैसा समय था वह, बस याद करते ही रोंगटे खड़े हो गये। राघवेश अचानक कहीं खो सा गया था, आनंद बोला- 'क्या हो गया?'

राघवेश ने जैसे अपने को झकझोर कर फिर पहली स्थिति में लाते हुए कहा- 'होना क्या है सोच रहा हूँ कि प्रकृति भी क्या है कभी-कभी कैसी लीला खेलती है! सन 1999 में मालपा प्रकरण जब हुआ, 14 प्रदेशों के लोग जो मान सरोवर की यात्रा पर आए थे, अलग-अलग दल जगह-जगह फंस गये थे और मालपा पर तो कहर ही ढा दिया था प्रकृति ने। पूरी पहाड़ी ने ऊपर से गिरकर दर्जनों लोगों को अपना शिकार बना दिया था। कुछ लोगों का तो पता ही न चला, मलबे के साथ नदी में बह गये थे और कुछ की लाशों को भी बड़ी मुश्किल से निकालना पड़ा था। पूरी सेना का सहयोग लेना पड़ा था बल्कि स्थिति यह थी कि सेना भी असहाय सी हो गयी थी। क्या करती, चारों ओर सड़क टूट चुकी थी और मालपा में ऊपर से पहाड़ गिरता जा रहा था। नीचे बचे लोग ऊपर से मालपा गिरता देख कभी इधर भागते कभी उधर भागते, चीखते-चिल्लाते पर कुदरत की भी यह कैसी मार रही कि दौड़ते भागने की कोई जगह नहीं। एक ओर पेड़, पत्थर और मलबे को बहाती उफनती नदी और दोनों ओर सड़क साफ। ऊपर की ओर भयंकर चट्टान और चट्टान से गिरते भारी पत्थर और मलबा। अपनी मौत को स्वयं अपने सामने देखा था लोगों ने।

हैलीकॉप्टर में सेना के जवान ऊपर घूमते पर असहाय होकर इस विनाशकारी दृश्य को देखकर उनका भी दिल पसीज जाता था। एक तो बिल्कुल संकरी घाटी, हैलीकॉप्टर के नीचे उतरने का सवाल ही नहीं। कोई भी ऐसा सुरक्षित स्थान नहीं था जहाँ हैलीकॉप्टर उतर पाता। दूर उतरता भी तो कई किलोमीटर तो सड़क जगह-जगह टूटी है और मालपा में तो दोनों तरफ आधा-आधा किलोमीटर सड़क का कहीं पता ही नहीं कहाँ चली गयी। हैलीकॉप्टर से सेना के जवान ठीक मालपा पर भी नीचे कूदते पर सिवाय मौत के उन्हें भी फिलहाल कुछ हासिल नहीं हो सकता था क्योंकि लगातार ऊपर से पहाड़ गिरता जा रहा था।

राघवेश अभी कहानी पूरी भी नहीं कर पाया था कि अचानक आनंद ने गाड़ी रोकी और एक छोटी सी झोपड़ी की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोला- 'बीनू से मिलेंगे साब आप ...?'

'ये बीनू कौन है'

'अरे साब वही बीनू जो इतने वज्रपात में दर्जनों लोगों के बीच अकेला बच गया था। तीन दिन बाद मलबे के बीच फंसे बीनू को सेना ने जिंदा निकाल लिया था। इसका पूरा परिवार तो यात्रियों के साथ मलबे में दबकर बह गया था। वहीं मालपा में एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर छोटी-मोती चाय की दुकान कर बच्चों को पाल रहा था। कुछ दिनों से तो बहुत खुश रहता था। एक बंगाली यात्री ने कह दिया था कि उसके बेटे को साथ ले जायेंगे और अच्छी नौकरी मिल जायेगी। मानसरोवर यात्रा से लौटते हुए लड़के को साथ ले जाने की बात हो गयी थी पर किसको पता था कि यात्री के मानसरोवर से लौटने से पहले ही वह हमेशा के लिए यहाँ से चला जायेगा...'

राघवेश तुरंत कार से उतरा और झोपड़ी की ओर बढ़ने लगा, देखा कि बीनू के छोटे से कमरे में उसके बिस्तर से होकर हर एक कोने में हार्डबोर्ड पर चित्र ही चित्र फैले हुए हैं; कुछ टीन सीटों पर, कुछ कागजों में, और वह चित्र बनाने में डूबा हुआ है। थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद भी बीनू ने नजर नहीं उठायी और वह चित्र बनाने में ही डूबा दिखाई दिया तो आनंद ने कहा-

'बीनू दा।'

बड़ी मुश्किल से बीनू ने धीरे से सिर उठाया एक निगाह डाली, हाथ से इशारा किया और फिर डूब गया अपनी दुनिया में।

राघवेश बोला- 'क्या बीनू बोलता नहीं।'

'नहीं साब उस हादसे ने इसकी आवाज को छीन लिया पर इच्छाशक्ति तो देखिये गज़ब की है।'

'इतने चित्र कहाँ भेजते हैं? कौन बनाता है चित्रों को...'।

'अरे साब आपको मालूम नहीं मालपा की दुर्घटना ने जहाँ इससे पूरे परिवार को छीन लिया वहीं भगवान ने क्या जादू किया कि ये पत्थर पर जीवंत चित्र बनाने लगा। धीरे-धीरे लोगों ने इसे समझा, यह झोपड़ी सरकार ने बनवा दी थी। बड़ी मुश्किल में तो यह मौत के मुंह से बचकर आया। छः माह तक तो दिल्ली अस्पताल में रहा, पर अब तो पूरी दुनियाँ भर के लोगों का तांता लगा रहता है इसके पास।

किताब छपवाने वाले लोग हों, या पहाड़ प्रेमी लोग, देश के कोने-कोने से आकर इसके बनाये चित्रों को खरीदकर ले जाते हैं ये तो लखपती बन गया साब लखपती।'

'लेकिन इसकी स्थिति तो...।'

'अरे साब ये चाहे तो खरीद ले आधा डीडीहाट, इतना पैसा है इसके पास, पर सब 'मंगलम' संस्था को दे देता है। इन सात-आठ साल में इसने सैकड़ों लोगों की आँख का आप्रेशन करवाया, जो लूले-लंगड़े है उनका इलाज कराने से लेकर बैशाखी देना और ह्वील चेयर से लेकर उनके बच्चों को पढ़ाने तक की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है।'

राघवेश जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया था। उसकी नजर बीनू के चेहरे से हटने का नाम नहीं ले रही थी। वह कभी सामने खड़े पहाड़ और नीचे बहती नदी को, और कभी उस झोपड़ी के कोने में बसे बीनू के संसार को एकटक देखे जा रहा था। बीनू के साथ हुए हादसे की कल्पना कर उसके रोंगटे खड़े हो गये। उसने नदी के संगम पर गहरी सोच में डूबे व्यक्ति का चित्र उठाया उस पर अंकित धनराशि को जेब से निकालकर बीनू के सामने रखा और डीडीहाट की ओर चल पड़ा। कार में बैठे-बैठे वह लगातार उस चित्र को देखता रहा। कैसा सजीव दृश्य उकेरा है। इस तस्वीर में जैसी सारी दुनियाँ समा दी है बीनू ने।

उस जीवंत तस्वीर के सम्मोहन से वह न जाने किस दुनिया में खो गया कुछ क्षणों के लिए वह जीवन के झंझावतों, आपा-धापी से मुक्त, तस्वीर की गहराइयों में डूबता चला गया।

अपाहिज

बारात विदा हो चुकी थी पिछले कई दिनों की भागदौड़ से महेश थककर चूर हो गया था। अभी सारा कुछ समेटना और फिर रिश्तेदारों को भी विदा करने की चिंता उसे सताये जा रही थी। परिवार में सबसे बड़ा होने के नाते सारी ही जिम्मेदारियाँ तो उसे निभानी पड़ती हैं, गांव के रीति-रिवाज और सारी रस्में भी तो पूरी करनी होती हैं।

महेश जहाँ अपने को थका हुआ महसूस कर रहा था, वहीं उसके चेहरे पर संतोष के भाव भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। माँ-बाप के अभाव में भाई-बहनों को उसने बच्चों की तरह पाला-पोसा और बड़ा किया था। आज वह अपनी अंतिम ज़िम्मेदारी से मुक्त हो अपने को तरा हुआ महसूस कर रहा था। चार भाई-बहनों का पालन-पोषण और फिर उनकी शादी कर उनके घरों को बसाना क्या किसी कठोर तपस्या से कम है?

सब भाई-बहिनों को लिखा पढ़ा कर उनके पाँवों पर खड़ा करके वह अपने जीवन को धन्य मान रहा था, उसे लग रहा था जैसे उसने आज अपनी सबसे छोटी बहिन की भी शादी कर सब तीर्थों का पुण्य प्राप्त कर लिया है। अब क्या है जिंदगी आधी कट गयी, थोड़ा बहुत बची है वह भी कट ही जायेगी। सोचते हुए महेश जैसे ही अंदर के हाल से धर्मशाला के मुख्य द्वारा की ओर बढ़ा, उसकी नजर गेट पर बने चबूतरे के ऊपर बैठे व्यक्ति पर पड़ी। देखा कि वह एक हाथ ऊपर उठाकर सिर हिलाते हुए जैसे महेश को नमस्कार कर रहा हो, महेश ने भी सहज भाव से उसको नमस्कार किया और अपने काम में जुट गया। लेकिन वह आदमी था कि एकटक महेश को देखे जा रहा था।

महेश नहीं सोच पा रहा था कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। एक आध बार तो उसे लगा जैसे वह उसे पहचान रहा है, परंतु फिर धर्मशाला में कोई अपाहिज भिखारी समझ उसने अपने दिमाग पर ज़ोर नहीं दिया। महेश सामान को समेट रहा था, जो-जो सामान जहाँ से मंगाया था उसे वहाँ-वहाँ भिजवा रहा था। कई ठेलियाँ भर-भर कर जा रही थी, अंतिम ठेली में बचा-कुचा सारा छोटा-बड़ा सामान महेश ने भर रखा था। ठेली वाला एक भरी ठेली लेकर चला गया था।

सामान की अंतिम खेप ठेली में लादकर अब महेश निश्चित मन से वापस लौटने लगा, उसकी नजर फिर उसी व्यक्ति पर टिकी जो एकटक उसकी ओर निहार रहा था। उसका चेहरा जाना-पहचाना सा लग रहा था। उसने दिमाग पर ज़ोर दिया पर कुछ याद नहीं आया, तो यह सोचकर कि अपाहिज है कभी इसी धर्मशाला में ही आते-जाते देख लिया होगा, वह आगे बढ़ गया, लेकिन उसका कातर निगाहों से लगातार देखना उसे कहीं अंदर तक कचोट रहा था। उसके मन में द्वंद्व चल रहा था कौन हो सकता है यह आदमी? और फिर इतना घूर-घूर कर देखने का मतलब भी क्या है, कई प्रकार के प्रश्न उसके मन में आ रहे थे। फिर सोचा अपाहिज है बेचारा। उसे खाने को कुछ दे देना चाहिए था। खाना मांगना चाहता होगा या एक वक्त के भोजन के लिए पैसा, फिर सोचा जरा सी बात पर परेशान नहीं होना चाहिए मुझे। महेश जैसे स्वयं को समझाने की कोशिश करता रहा, इसी उधेड़बुन में वह उस आदमी की तरफ बढ़ा।

इतने में सुरेश ने आवाज दी- 'भैया! गैस के चूल्हे तो यही रह गए हैं, अभी बहुत सामान है एक ठेली और मंगानी पड़ेगी!' यह ठेली पूरी भर गयी थी, लेकिन थोड़ा बहुत सामान बच गया था तो महेश ने यह सोचकर कि इतने से सामान के लिए दुबारा क्या ठेली को मंगाना है इसी ठेली में वह उस भारी सामान को भी भरता जा रहा था। ठेली पर सामान रखते-रखते अचानक उसका पाँव फिसला उसने संभलने की कोशिश की, पर उठाते-गिरते पूरी ठेली महेश के ऊपर उलट गयी। ठेली पलटते ही चबूतरे के पास से एकएक चीखने की आवाज आई- 'बचाओ'।

उसकी चीख सुनकर इधर-उधर के सभी लोग दौड़ आए और महेश को सुरक्षित निकालने में जुट गये। महेश को सुरक्षित निकालते समय सामने नजर पड़ते ही उन्होंने देखा एक आदमी नीचे बेहोश गिर पड़ा है और उसके सिर पर लगी चोट से खून तेजी से बह रहा था। अचानक श्याम चाचा बोले - 'अरे! ये तो बीनू है, क्या हुआ इसे, इसका तो खून बहा हुआ है। इसकी किस्मत भी तो ऐसी ही है।'

लोगों ने उसे भी तुरंत उठाया और अस्पताल ले गये। महेश ने अस्पताल जाते समय बताया कि मेरा पाँव फिसलने पर जब पूरी ठेली मेरे ऊपर गिरी, तब यह ज़ोर से चीखा था और अपने को घसीटकर आगे लाना चाहता था तभी चबूतरे से यह नीचे गिर पड़ा, इसको सिर्फ मेरे कारण चोट आयी है।

महेश के पाँव की हड्डी टूट चुकी थी और बीनू दो घंटे के बाद भी अभी होश में नहीं आया था। महेश के सारे नाते-रिश्तेदार अस्पताल आ पहुँचे। आपस में चर्चा शुरू हो गयी थी कि शादी का कार्य तो ठीक से संपन्न हो गया था, लेकिन सब कुछ निपटने के बाद यह अचानक कैसी परेशानी आयी है।

महेश को अब अपनी कम बीनू की चिंता ज्यादा सताने लगी थी।

'मैं तो ठीक हूँ, कोई बात नहीं। हड्डी जुड़ जायेगी पर वह... उसे देखो... वह अब भी होश में नहीं आया...'

जो भी महेश के पास आता सबसे पहले महेश बीनू के बारे में पूछता- 'कैसा है वो, होश में आया या नहीं?'

उसके मनो-मस्तिष्क में बीनू का चेहरा दौड़ने लगा। वह सोचता जा रहा था आखिर क्या बात करना चाह रहा था वह मुझसे। मैं उससे बात नहीं कर सका और जब ठेली मेरे ऊपर गिरी तो कितनी ज़ोर से चीखा था कि दो सौ मीटर दूर तक खड़े लोग भी दौड़े चले आए थे, यदि वह नहीं चीखता तो मेरी ठेली के नीचे दबे-दबे क्या स्थिति होती? वह लगातार सोचे जा रहा था और भगवान से प्रार्थना भी करता जा रहा था कि हे भगवान! किसी भी प्रकार से वह उसे ठीक कर दे। तभी छोटा भाई देवेश दौड़ा चला आया- 'भाई! आप धर्मशाला वाले बीनू की चिंता कर रहे थे न, वह ठीक हो गया। उसे होश आ गया है और मालूम है यहाँ तो चमत्कार भी हो गया?'

'क्यों क्या चमत्कार हो गया?'

'ये बीनू बैशाखू दादा का बेटा, जो सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गया था। बड़ी मुश्किल से बचा तो था किन्तु उसके दोनों पावों ने काम करना बंद कर दिया था, दोनों पैरों को लकवा मार गया था। भगवान की कैसी लीला है होश में आते ही उसके पाँव बायाँ हाथ हिलने-डुलने लगा है। यह सब देखकर तो लोग आश्चर्यचकित हैं। पूरे अस्पताल में आज यही चर्चा है।'

महेश की खुशी का तो ठिकाना न रहा बोला- 'सिर पर लगी चोट का क्या हाल है?'

'सब ठीक हो जायेगा भाई! चिंता न करो'

'चिंता होनी स्वाभाविक थी मेरे कारण बेचारा चोट खा गया था।'

'आपको पता है कि जब वह होश में आया तो सबसे पहले उसने आपके बारे मे पूछा-

'महेश भाई कैसे हैं, कहाँ हैं?'

तो सबने उसे बताया कि वह उनकी चिंता न करे, वे यहीं अस्पताल में हैं और बिल्कुल ठीक हैं, तो दोनों हाथों को जोड़ने की कोशिश करता हुआ बोला वह आसमान की ओर देखता हुए बोला- 'सब उसकी लीला है।' और लंबी सांस लेते हुए उसने आँखों को बंद कर दिया था। बहुत देर तक भी उसने आँख न खोली तो वहाँ खड़े लोग सहम ही गये थे। उन्हे लगा जैसे फिर कहीं वह बेहोशी में तो नहीं जा रहा है लेकिन कुछ ही देर बाद आँखों से आंसुओं की धार के साथ उसकी आँखें खुली और शरीर से उसने पूरी तरह हिलने-डुलने की कोशिश की। उसे अद्भुत चमत्कार नजर आने लगा, उसने लकवे से ग्रस्त पैरों को मोड़ने की कोशिश की तो वह मुड़ने लगे, हाथ ऊपर उठाया तो वह भी उठने लगा। बस क्या था वह दो-तीन बार इधर-उधर मुड़ा और फिर बैठने की कोशिश करने लगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने दौड़कर डॉक्टर को बुलाया, देखा कि बीनू के जो हाथ-पाँव जो पूरी तरह निर्जीव हो गये थे उसमें जान आ गयी, जो भी देखता यह कहकर भगवान को सिर नवाकर चला जाता, सब उसी का चमत्कार है।'

बीनू, महेश को मिलने के लिए छटपटाने लगा। वह बार-बार पूछता- 'महेश ठीक तो है न।'

'हाँ बिल्कुल ठीक है!'

'फिर यहाँ क्यों नहीं दिखाई देता? मुझे वहीं ले चलो जहाँ पर वे हैं...।

बीनू जब ज्यादा जिद्द करने लगा तो डॉक्टर ने समझाया-

'थोड़ा धैर्य रखो, तुम्हारे हाथ पाँव ठीक हो रहे हैं एकाएक उन पर ज़ोर देना...'

अभी डॉक्टर अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि बीनू बोला-

'मुझे कुछ नहीं होगा, एक बार महेश भाई को दिखा दो।'

बीनू की जिद देखकर महेश को ही वहाँ लाया गया। महेश के पाँव पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा हुआ था, वैसी ही स्थिति में महेश को बीनू के कमरे में ले जाया गया। महेश को देखते ही जैसे बीनू में कोई अदृश्य ताकत आ गयी वह 'महेश भाई!' कहकर एकदम उठ बैठा और बिस्तर से नीचे उतरने की कोशिश करने लगा तभी लोगों ने उसे वहीं रोक दिया। महेश की आँखों में खुशी के आँसू छलक आये।

श्यामू चाचा कहने लगे, जिसे सबने छोड़ दिया था उसे भगवान ने अपना लिया। पता है महेश, जब इसे लकवा मार गया तो परिवार के लोगों ने इसकी ओर ध्यान देना ही बंद कर दिया था। जिस प्राइवेट फैक्ट्री में यह काम करता था इसे आर्थिक सहायता देना तो रहा दूर, जो इसका हिसाब-किताब बनता भी था वह भी नहीं दिया, और तो और पत्नी भी छोड़ कहीं और चली गयी थी। नयी-नयी शादी हुई थी, उसे लगा होगा कि अभी जिंदगी की शुरुआत भी नहीं हुई कि ऐसा हो गया, फिर पूरी जवानी और पूरी जिंदगी कैसे कटेगी उसकी? हालांकि बहू तो फिर भी ठीक थी। उसके दिल में ऐसी भावना तो थी कि बीनू को छोड़कर वह कहीं नहीं जाएगी और जो भी हो वह बीनू की सेवा में ही जिंदगी काट लेगी, पर उसके मायके वाले थे जिन्होंने जबरन रिश्ता तुड़वाया और उसकी कहीं और दूसरी जगह शादी कर दी। माँ-बाप भी कहाँ? माँ तो अंधी है बाप है नहीं। यही बीनू किसी प्रकार अंधी माँ को पाल रहा था, इस धर्मशाला में इस अपाहिज स्थिति में भी यह चौकीदारी करता है। स्वाभिमानी बहुत है। चाचा-ताऊ सहित बड़ा परिवार है इसका, पर इस जमाने में कौन किसकी चिंता करता है? सबने छोड़ दिया था इसको। पर भगवान ने अब नयी जिंदगी दे दी है इसे, इसके नाम की जमीन जायदाद पर तक लोगों ने कब्जा कर दिया था।'

महेश एकटक बीनू को निहार रहा था उसे अपना और बीनू का बचपन याद आ रहा था कितना साहसी था बीनू, जब स्कूल जाते समय मैं बरसाती गधेरा पार करते हुए पत्थर से फिसलकर बह गया था तो यही बीनू था जिसने छलांग मारकर अपने जीवन की परवाह न कर किसी तरह मुझे बचा लिया था, और आज दूसरी बार इसने मेरी जिंदगी को बचाया है यह तो मेरा भगवान है।

और दूसरी ओर बीनू अपने को स्वस्थ महसूस करने लगा था। वह अपने अंदर नयी शक्ति का संचार महसूस कर रहा था, उसे लगा जैसे महेश भगवान बनकर उसे नयी जिंदगी देने आया है, वातावरण एकाएक शांत हो गया था। वे दोनों एक दूसरे को एकटक देखे जा रहे थे दोनों के हृदय में समुद्र उमड़ रहा था।

दोनों की आँखों में सब एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना हिलोरे ले रही थी और मूक वाणी आँखों में आंसुओं की बरसात लिए मानों कह रही थी कि अब नयी जिंदगी की नये ढंग से शुरुआत करनी है, जो जिंदगी तमाम अवसादों को भूलकर एक नया जज्बा पैदा कर सके।

तकदीर

चिलचिलाती धूप में हल चलाते-चलाते हिमांशु का गला सूख गया था, पसीने की बूंदे उसके माथे से टपककर गालों से उतर रही थी। सामने ही पीपल के पेड़ से नीचे पानी का लोटा रखा था, हिमांशु पानी से गला तर कर पेड़ की छांव में बैठ गया। उसे वहाँ बैठे मुश्किल से पाँच मिनट भी न हुए थे कि जीतराम चाचा की आवाज सुनाई दी- 'अरे आज तो हिमांशु भी थक गया! क्यों, आराम कर रहे हो?'

'क्यों क्या...? क्या हिमांशु इंसान नहीं है? इतनी कड़ी धूप में हल चला रहा है तो थकेगा नहीं? इतने में सोहन चाचा की आवाज आई। 'अरे नहीं सोहन भाई क्यों नहीं थकेगा, गांव में हिमांशु के उम्र दो चार लोग ही तो हैं जिनके सहारे खेतों में हल चल रहे हैं, वरना गांव में हल चलाने को बचा कौन है? हमारी उम्र भी तो अब हल लगाने की कहाँ रही?'

जीतराम चाचा बोले- 'सो तो है, लेकिन अपनी उम्र के लोगों में हिमांशु ही सबमें अव्वल है। एक ही दिन में कितने ही खेतों में हल लगा देता है और व्यवहार में इतना शालीन कि सब का मन मोह लेता है।' सोहन चाचा हिमांशु की तारीफ करने लगे थे।

हिमांशु अपनी प्रशंसा सुन दो टूक बोला- 'अरे चाचा क्यों धनिये के पेड़ पर चढ़ा रहे हो! जमीन का आदमी हूँ जमीन पर ही रहने दीजिए। नौकरी कहीं मिलेगी नहीं, ऑफिसर तो दूर चपरासी भी नहीं बन पाऊँगा, पर अपने इन दो खेतों का राजा तो बन ही सकता हूँ?'

'जुग-जुग जियो बेटा! भगवन तुम्हारी उम्र लंबी करे। बस अब जल्दी से विवाह कर लो। तुम्हारे खाने-पीने में लापरवाही नहीं होगी, बहू आएगी तो तुम्हारा और तुम्हारे इन दो खेतों का भी पूरा ध्यान रखेगी।'

हिमांशु कुछ न बोला। पुनः उठकर हल चलाने लगा और मन ही मन सोचने लगा- 'ठीक ही तो कहते हैं चाचा लेकिन विवाह करेगा कौन? माँ तो बचपन में ही स्वर्ग सिधार गयी और पिता का साया ऐसे समय में उठा जब मैंने होश भी न संभाला था, दुनियादारी से बिल्कुल अनभिज्ञ था।'

हिमांशु नहीं सोच पा रहा था कि दुखों के पहाड़ उसी के ऊपर क्यों टूटते हैं। अपने पुराने दिनों को याद करते हुए अपने अतीत में पहुँच गया था। उस दिन कितना खुश था वह जब राज्य स्तरीय फुटबाल टीम में जिले का प्रतिनिधित्व करने गया था। स्कूल से आते-आते बहुत देर हो गयी थी, देर से आने पर पिताजी नाराज तो होंगे लेकिन अच्छी खबर देकर उन्हें मना लेगा। तेज कदमों से वह पहाड़ी पगडंडियों पर दौड़ रहा था, घर पहुँचते-पहुँचते धूर अंधेरा हो गया था। लालटेन जलाकर अंधेरे को दूर करने वाला भी कोई नहीं था। पिता हैं लेकिन उन्हें अंधेरे और उजाले में अंतर नहीं दिखता। ईश्वर ने समय से पहले ही उनकी आँखों की रोशनी भी छीन ली।

घर पहुँचकर हिमांशु ने सबसे पहले लालटेन जलायी और पिताजी को आवाज दी - 'कहाँ हैं आप?

खुशी उसकी आवाज से स्पष्ट झलक रही थी और अपनी सफलता के बारे में उन्हें बताने के लिए वो बेसब्र भी हो रहा था। लेकिन कोई जबाब न मिलने पर उसे समझने में देर नहीं लगी कि पिताजी बहुत नाराज हैं।

उसने देखा तो पिताजी अंदर अपने कमरे में चारपाई पर लेटे हुए थे। पहले चाय बनाता हूँ पिताजी को तभी खुशखबरी दूँगा। ये सोचकर हिमांशु चूल्हा जलाने लगा। थोड़ी देर में चाय बनाकर वह उनके कमरे में पहुँचा व चाय का गिलास जमीन पर रखकर बोला- लो! पिताजी चाय पियो अब गुस्सा थूको और सुनो मेरा चयन राज्य स्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता में हो गया है जिसमें भाग लेने लखनऊ जाना है। अच्छा खेलने पर स्पोर्ट्स कॉलेज के लिए मेरा चयन हो सकता है। आप खर्चे की चिंता न करे, वहाँ वजीफा मिलेगा।'

इस खबर को सुनकर भी पिताजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो हिमांशु का माथा ठनका। नजदीक जाकर उन्हें छू कर माफी मांगनी चाहिए तो देखा कि पिताजी लंबी-लंबी साँसे ले रहे हैं। हे भगवान इतनी रात को क्या करूँ मैं, उनकी हालत देखकर हिमांशु घबरा गया। उसने पड़ोस में बच्चू चाचा को बताया तो उन्होंने तुरंत डॉक्टर को बुलाने को कहा। बच्चू चाचा उदार थे, उन्होंने उसके हाथ पर कुछ पैसा थमाया और बोले- 'जब तक तू लौटता है, मैं यहाँ पर रहूँगा।' उन्होंने गांव के दो-चार लोगों को भी बुलाया। लेकिन गांव से आठ मील दूर डिस्पेंसरी तक इतनी रात को कौन जायेगा? एक तो जंगल का रास्ता, ऊपर से जंगली जानवरों का भय, लेकिन हिमांशु का मन सुबह तक प्रतीक्षा करने के लिए बिल्कुल भी तैयार न था। परेशान हिमांशु की आँखों में आँसू देख कमला चाची ने उसे ढांढस बँधाया- बेटा! हम हैं तेरे पिता के पास अगर तू डॉक्टर को बुलाने अभी जाना चाहता है तो जा देर मत कर।'

कमला चाची से आश्वासन मिलने के बाद हिमांशु अकेला ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर निकल पड़ा। पहाड़ी पगडंडियाँ इस समय उसे खेल के मैदान की तरह लग रही थी, वह दौड़ता चला जा रहा था। डिस्पेंसरी से सटा हुआ डॉक्टर साहब का कमरा था, हिमांशु ने उन्हें जगाया और सामने पड़ते ही उनके पैर पकड़ लिए- 'डॉक्टर साहब! आप मेरे परमेश्वर हैं, मेरे बीमार पिता को बचा लीजिए। साहब मेरे साथ गांव तक चल लीजिए, पिताजी अंतिम श्वास ले रहे हैं।

'कल सुबह चलते हैं, इस रात को नहीं।' डॉक्टर साहब के वाक्य ने जैसे थके हुए हिमांशु की कमर तोड़ दी थी।

'मेरे पिताजी सुबह तक नहीं बच पायेंगे साहब, और हिमांशु के आँखों से आँसू टपकने लगे।'

हिमांशु की विनम्रता और लगातार आग्रह ने आखिर डॉक्टर को चलने पर मजबूर कर दिया। रात के दो बजे के लगभग वे पैदल-पैदल गांव पहुँचे। पिता की हालत और बिगड़ गई थी। डॉक्टर ने उनकी नब्ज टटोली और होश में आने के लिए दवा दी, लेकिन वे अंतहीन बेहोशी की ओर जाते रहे।

कुछ देर में दो चार हिचकियों के साथ ही उनका जो मुँह खुला तो खुला ही रह गया। उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। डॉक्टर ने उनका हाथ धीमें से बिस्तर पर रख दिया।

'कैसे हैं पिताजी!' हिमांशु ने व्यग्रता से पूछा।

डॉक्टर ने कुछ न कहकर हिमांशु के कंधे पर हाथ रखा और बाहर निकल आये। हिमांशु का आखिरी सहारा भी उससे छिन गया था।

पिता की अंतिम क्रिया-कर्म की रस्म निभाकर हिमांशु स्कूल पहुँचा तो फुटबाल की टीम लखनऊ रवाना हो चुकी थी। खेल के मैदान का यह जुझारू खिलाड़ी मैदान से तो बाहर आ ही चुका था, लेकिन उसे लगा जैसे असली जीवन की लड़ाई भी वह हार चुका है। बड़ी मुश्किल से हिमांशु ने अपने को संभाला और एक बार फिर उसके मन में इच्छा शक्ति जगी। अब उसने अपना लक्ष्य फुटबाल का मैदान नहीं बल्कि गांव के खेत-खलिहानों की खुशहाली को बनाकर अपनी माटी में खपने का मन बना लिया है।

 

अभिशप्त

दोपहर के दो बजे हैं। आकाश में काले बादलों से बनती बिगड़ती आकृतियाँ। कुछ काले शेरों के मानिंद, कुछ हल्के गोरे-श्वेत मेघ। दोहरे-चौहरे परत दर परत एक दूसरे के पीछे भयंकर विद्रुप, जैसे आकाश में ज्वालामुखी फटा हो। काले स्याह डरावने...। अचानक बिजली की चमक व कड़कड़ाहट। कुछ ही पल में झमा-झम बारिश से तन-मन तरबतर हो गये। इतनी उमस के बाद बारिश की बूँदें, जैसे प्यासे को पानी मिल गया। कुदरत की इस अनोखी को देख परमो का मन-मयूर नाच उठता। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पहाड़ी मार्गों पर संकरी सड़कों का सफर वास्तव में कम रोमांचकारी नहीं।

कुरील के पहाड़ी अंधे मोड़ों को चीरती हुई एम्बेस्डर कार झुक-झुक करती अचानक रुक गयी। ड्राइवर ने कहा टायर पंचर हो गया। लो कर लो बात। जब ज्यादा जल्दी होती है तो अक्सर और देर हो ही जाती है। जितनी देर में ड्राइवर टायर बदलता रहा परमो सड़क से सटे हुए गणेशपुर को निहारता रहा। पहाड़ियों की ओट में छिपा सुंदर गांव। प्रकृति ने जैसे सारे प्राकृतिक सौंदर्य वहीं उड़ेल दिए हों, सीढ़ीनुमा खेतों की हरितिम आभा छोटे-छोटे झरनों का निनाद और नीचे बहती हुई अविरल व स्वच्छंद 'मंदाकिनी' किसी अल्हड़ नवयौवना सी मदमस्त, बेपरवाह अपनी ही धुन में एकहरी डगर लिए। जाने कितना पानी बह गया होगा तब से। अठारह साल पहले गांव आया था अब चूंकि बच्चे बड़े हो गये हैं अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं। शहर की भाग दौड़ भरी जिंदगी से उबर कर गांव की खुली हवा में सांस लेना, कितना सुखद अहसास! इस अहसास को पाने के लिए ही परमो ने गांव की ओर रुख किया था।

कुदरत भावनाओं की परवाह नहीं करती, गणेशपुर में बादल फटने से गांव का गांव मलबे में समा गया। मुरारी की जवान बिटिया हाथ पीले होने से पहले ही दुनिया से रुखसत हो गयी। मुरारी व सोबतू पदान दादा के खेतों में हल चलाकर व खेत बाड़ी के कामों के अलावा मेहनत-मजदूरी कर पेट भरते, बच्चों को भी रोटी जुटाते। गणेशपुर में भूस्खलन की तबाही में लोग तो मरे-मरे, पर जिंदा भी मुर्दा बन गये। जीवित कंधों पर मुर्दों को ढोने का असह्य बोझ कौन सहन कर पायेगा। कहते हैं कि मुरारी की जवान बिटिया की लाश अभी तक नहीं मिली। उसकी माँ भी जवानी में मर गयी थी।

कुछ लोग कहते हैं कि खलमथ के खेतों के बीचों-बीच लंबे खड़ीक के पेड़ से गिर कर मर गई थी वह। दुनिया जितने मुँह उतनी बातें करती है। बहुत सारे लोग कहते हैं कि उसके बाबा ने ही दिवाली के दिन कच्ची शराब के नशे में उसे धक्का दे दिया था। उसकी एक चीख पर पाँच मिनट में सारा गांव इकठ्ठा हो गया। बात जो भी हो उसकी जान चली ही गयी, उसके साथ क्या हुआ उसी की आत्मा जानती होगी या भगवान।

शहर की भाग-दौड़ भरी जिंदगी से परमों का मन उचट चुका था। कुछ दिनों वह गांव की खुली हवा में सांस लेना चाहता था। शहर में रहते हुए भी उसका मन गांव में ही रहता। गांव के खेत-खलिहान उसकी यादों में बसे हैं कि सपनों में भी उसे गांव के दृश्य दिखाई देते हैं। पंछी चाहे कितनी ही ऊंची उड़ान क्यों न भरे, लेकिन ठौर के लिए उसे जमीन पर आना ही पड़ता है। कमोबेश उसी गंवई संस्कृति व वहाँ की माटी की सौंधी महक उसके अंतस को झकझोरती है कि गांव लौट आओ, पर लाख कोशिशों के बाद भी वह गांव न लौट सका था। इस बार गांव जाने का विचार मन में आते ही उसके मानस पटल पर अतीत की स्मृतियाँ जाग उठी।

डेढ़-दो सौ किलोमीटर का सफर तय करने के बाद सायं को पाँच बजे के करीब गांव पहुंचा। गांव का खुशगवार मौसम जैसे बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा हो। इस छोटे से गांव की चारो तरफ ही पहाड़ियाँ ऐसी लग रही थी जैसे अभी-अभी नहाई हो। स्वच्छ वातावरण, बारिश के बाद अभी-अभी छटा हुआ नीला आकाश, चहुंदिश हरियाली की हरितिम आभा। जैसे ही कार से उतरा गांव के बच्चों ने उसे घेर लिया। वे कार को विस्मय व हर्षात्तिरेक आँखों से निहारते रहे, कोई उसके शीशों में झाँकता तो कुछ बोनट में बैठने का प्रयास करते। दरअसल यह ब्रांच रोड अभी-अभी छोटे वाहनों के लिए खुली थी। गांव के बच्चों के लिए यह कार किसी अजूबे से कम न थी कार को देखने का विस्मय उनकी आँखों में साफ देखा जा सकता था।

गांव की देहरी पर जैसे ही परमो ने कदम रखा, एकाएक उसके कदम रुक गए। शोभनू काका का मकान खंडहर बना देख उसे लगा कि बचपन के कुछ महत्वपूर्ण स्मृति चिह्न नष्ट हो गए। इस मकान की चौक में, गोपी, पिरमू, मोहन व सुरजू खूब खेला करते थे। पठाली की छत से बने इस मकान का चौक गांव के सभी मकानों की चौक से बड़ा था। अक्सर गांव के सभी बच्चे उसी चौक में खेलने के लिए जाया करते थे। उन दिनों इस चौक को पदान दादा के चौक के नाम से जानते थे। इस चौक के पार की धार वाली पहाड़ी चारगाह पर गाय व बकरियाँ चीटियों के मानिंद दिखाई देती थी। इस चौक में खेले गये गुल्ली डंडे, कबड्डी व कंचों को जीतने का रोमांच आज के क्रिकेट में महेंद्र सिंह धोनी व सहवाग के चौके-छक्कों से कम न था।

कुछ ही देर में यह पहाड़ी गांव अंधेरे की आगोश में समा गया। परमों अपने पैतृक गांव की तिबारी में सुस्ता रहा था, पुरानी बातों को सोच-सोच कर उसे झपकी आने लगी। कुछ देर में खाना खाने के बाद वह सो गया। दिन भर की थकान के कारण उसे जल्दी नींद आ गई। सुबह दैनिक क्रिया से निवृत्त होते ही दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस समय कौन आया होगा? दरवाजा खोला तो सामने हाथ में लाठी पकड़े, झुकी कमर वाली वृद्धा ने प्रवेश किया। परमों उन्हें पहचान तो नहीं पाया पर एक अज्ञात अनुभूति से उसने प्रणाम किया और बैठने का आग्रह किया तो वृद्धा माँ ने सहजता से आग्रह स्वीकार कर लिया। बैठते ही बोली- 'खूब तरक्की करो बेटा परमू।' और बहुत कुछ कहने के साथ ही उन्होंने परमू पर जैसे आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।

परमू पहचानने की कोशिश तो करता रहा पर पहचान नहीं पाया। बुढ़िया के चेहरे पर प्रश्न चिह्नों की तरह पड़ी लकीरें उसके मन की अतृप्त आकांक्षाओं व टीस को खुद ब खुद बयां कर रही थी। शरीर पर फटी पुरानी धोती, कमर पर कसा हुआ सफ़ेद पट्टा और ऊपर से एक फटा पुराना सा स्वेटर, आँखों में चश्मा। चश्में की एक कड़ी टूटी हुई लेकिन तागे से कानों तक बांधने का प्रयास। पहाड़ी नारी की साक्षात् प्रतिमूर्ति अभावों में भी जीवित बने रहने का संकल्प और आँखों में टूटे सपनों की संवेदना।

काँपते हाथों से परमों का हाथ पकड़ते हुए बोली- 'बेटा परमो मैंने सुना कि तू बहुत बड़ा आदमी हो गया। शहर में बड़ा बाबू बन गया। कुछ मेरी ओर भी देखोगे बेटा! तुम लोग अपने हो इसलिए तो बोल रही हूँ, बाकी और कहूँ तो किससे?'

इतना कह कर वह चुपचाप परमो की ओर ऐसे देखने लगी मानो उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही हो। उनके मुंह से बड़ा बाबू सुनकर परमों के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गयी और उनके बात करने के लहजे से तो वह समझ गया था कि ये तो विमला दादी हो सकती हैं।

जब परमों कुछ देर तक कुछ भी नहीं बोला तो वह फिर बोली- 'बेटा! अकेली होती तो कैसे भी रह लेती पर जवान विधवा बहू और उसकी तीन-तीन बेटियाँ... उफ! भगवान के घर भी तो न्याय नहीं है। पिछले जन्मों के न जाने क्या पाप किये होंगे, सिर छुपाने के लिए एक झोपड़ी बनायी थी, इस बरसात में उसका भी पुसता गिर गया। पता नहीं कब झोपड़ा भी ढह जाए। कुछ करो इन अभागों के लिए।' और दादी की आँखों से निकलते आँसू चेहरे पर पड़ी झुर्रियों से टपककर भारी दु:ख का बयां करने लगे।

दादी के मुँह से विधवा बहू सुनकर वह चौंक उठा।

'दादी! लेकिन राजू ....।'

'वही तो दुश्मन निकला, पता नहीं किस जनम के पापों का फल भुगत रही हूँ। इस जनम में तो मैंने किसी का बुरा नहीं किया। ऐसी अभागी औरत कौन होगी जो अपने सामने ही अपने पति और बच्चे की मौत देखे। पति की मौत के बाद वृद्ध सास-ससुर को मैंने कभी तकलीफ नहीं होने दी। गांव में सबके काम में हाथ बंटाया फिर भी भगवान ने मेरे साथ ऐसा किया। मैं तो मर भी नहीं सकती! इस जवान बहू और उसके बच्चों का क्या होगा। बस सोच-सोचकर पागल हो गयी हूँ।'

अपने आँसुओं को पोंछती, कांपती हुई वह अपना दुखड़ा रोकर भगवान को कोसते हुए कई प्रश्नों को अनुत्तरित छोडकर कमरे से बाहर चली गई।

विमला दादी की बातें सुन परमों का मन खराब तो हो ही गया था। उसके सामने अतीत के काले पर्दे फटते चले जा रहे थे। ये विमला दादी भी किस हाड मांस की बनी है। शुरू से ही इसने दु:खों को झेला है। माँ बताती थी कि विवाह होने के कई साल तक संतान न होने पर बांझ होने के ताने सहती रही और जब राजू पैदा हुआ तो दो वर्ष बाद ही पति की मौत हो गयी। पति की मृत्यु के बाद तो उसने अपने आप को सास-ससुर की सेवा व राजू की परवरिश में लगा दिया था। कभी किसी ने उन्हें ऊंची आवाज में बातें करते नहीं सुना होगा। हमेशा मुसकुराती हुई चाची गांव में हर किसी के काम-काज में मदद करती। माँ का उनसे विशेष स्नेह था। नन्हें राजू के लिए कोई कमी न हो इसलिए माँ जब-तब विमला दादी की हर संभव मदद करती थी। आज इस दादी को फटे हाल में देख परमों का मन और दु:खी हो गया।

थोड़ी ही देर में रामदीन चाचा व गांव के कुछ अन्य लोग मिलने आए तो कुछ देर तक इधर-उधर की बहुत सारी बातें होती रही लेकिन परमों का मन तो विमला दादी के दु:खों में डूबा रहा। उदास परमों से चाचा पूछ ही बैठे- 'उदास-उदास से क्यों दिख रहे हो परमों! क्या तबीयत ठीक नहीं है?'

'नहीं चाचा सब ठीक है अभी थोड़ी देर पहले विमला दादी आई थीं, चाचा क्या हुआ राजू को?'

चाचा दु:खी होकर बोले- 'अरे बेटा क्या बताएं! भगवान ऐसे दिन किसी को न दिखाये। उसे क्या पता था कि उसे बुढ़ापे में जवान बेटे की मौत देखनी पड़ेगी। ऊपर से जवान बहू और तीन-तीन लड़कियाँ हैं और पास बेचारी के कुछ भी नहीं।'

'राजू क्या कर रहा था? कहीं नौकरी लगी भी उसकी या नहीं?

परमों ने व्यग्रता से पूछा।

'अरे बेटा ही नालायक निकला।' दीवान सिंह चाचा ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा- 'बड़ी मुश्किल से रो-धो कर दसवीं पास कर पाया था। फिर नौकरी के लिए कभी देहरादून, कभी दिल्ली, कभी कोटद्वार के चक्कर लगाता रहा। हर महीने किसी न किसी बहाने माँ के मेहनत-मजदूरी से कमाया हुआ पैसा इधर-उधर जाने में ही खत्म कर आता। एक बार उसे पता लगा कि किसी सरकारी विभाग में चपरासी की भर्ती हो रही है। देहरादून में किसी आदमी ने नौकरी दिलाने का वादा कर बुढ़िया के रहे-सहे खेत भी बिकवा दिये। न नौकरी ही मिली न खेत बचे। खेत गँवाने के बाद राजू को थोड़ी से समझ आई। उसने ड्राइवरी सीखी और किसी की जीप चलाकर दो पैसे कमाने लगा। इसी बीच उसकी शादी हो गयी।'

'लेकिन राजू को अचानक हुआ क्या?'

'अरे बेटा सब ठीक चल रहा था अचानक राजू को एक दिन तेज बुखार आया और उसने जो बिस्तर पकड़ा तो फिर अंत तक उठ नहीं पाया। दादी ने सारे झाड़झंकार किए पर कुछ न हुआ। गांव के पास कुरगुडखाल वाले डॉक्टर साहब का पता नहीं क्या-क्या करते रहे। बाहर पौड़ी अस्पताल तक जाने के लिए न तो पैसा था, न हिम्मत। कुछ लोगों ने कहा कि गांव के लोग चंदा इकठ्ठा करके पौड़ी अस्पताल तक तो किसी हाल में पहुंचा देंगे लेकिन विमला काकी को यह भरोसा था कि घर के दावा-दारू से ठीक हो जाएगा। जब स्थिति ज्यादा ही खराब हो गयी तो हम लोगों ने हाथ पाँव मारे, उसे घर से उठाकर बस पौड़ी ले गए पर पौड़ी पहुँचने से पहले ही उसने दम तोड़ दिया। आधे रास्ते से ही अभागे को वापस लाना पड़ा।

चाचा का मन बहुत खराब हो गया था। बोले- 'परमों हम गांव के लोगों की कोई कीमत नहीं है। हमारी जान की कीमत तो पशुओं के बराबर भी नहीं है, तब से मांग कर रहे हैं कि कुरगुडखाल में एक छोटा सा अस्पताल ही खुल जाए। पच्चीस गांव हैं इसके हेरफेर में, पर सरकार भी हमारे लिए हमेशा बहरी निकली, सरकार कर रही होगी कुछ किसी के लिए पर अभी तक तो हमलोगों के लिए कुछ नहीं हुआ। अंग्रेजों के जमाने में भी हम वैसे ही थे जैसे आज हैं। बेटा तुम लोग ही कुछ कर सकते हो तो करों, बाकी हमारी जिंदगी ऐसे ही है। आधी कट गयी आधी और गुजर जायेगी।' कहकर चाचा उठे और घर की ओर चल दिये।

जितने भी लोग वहाँ पर बैठे थे सभी ने चाचा की बातों पर हामी भरते हुए परमों से कुछ करने की बात करते रहे और आज तो पूरा दिन लगभग इन्हीं चर्चाओं में चला गया। चिकित्सा के अभाव में न जाने कितने राजू हर रोज यहाँ दम तोड़ते हैं, गरीबी का अभिशाप न जाने कितने परिवारों को तबाह किए हुए है। परमों नहीं समझ पा रहा था कि वह ऐसा क्या कर सकता है जो गांव के लोगों का सहारा बन सके। कितनी बातें सुनाएँगे लोग उसे? एक साल में गांव में तीन महिलाओं की तो घास काटते हुए पहाड़ से गिर कर मौत हो गयी, दो बच्चों को बाघ ने अपना निवाला बना लिया। ओह! किसकी नजर लग गयी मेरे गांव पर? वह सोच-सोच कर परेशान सा हो गया था।

एक सप्ताह बाद तक गांव में रहने के बाद परमों वापस आ तो गया लेकिन अब उसका मन कहीं नहीं लगता। जब तक वह गांव के लिए कुछ कर नहीं लेता, तब तक उसे लगता है कि उसकी आत्मा उसे शांत नहीं बैठने देगी।

कुछ नहीं जिंदगी

उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे दूसरों की सेवा करना ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया हो। वे समाज सेवा पर खोखले भाषण और दिखावा मात्र करने के बजाए यथार्थ के धरातल पर जन सेवा और परोपकार में ज्यादा विश्वास करते थे। वे कहते थे व्यक्ति सेवा ही प्रभु सेवा है और इस सेवा से बढ़कर कोई बड़ा धार्मिक अनुष्ठान नहीं हो सकता। यूं तो मदन भैया ने दूसरों की सेवा को ही पूजा मान लिया था लेकिन उन्हें देखकर अनायास ही लोगों की जिज्ञासा जाग उठती थी, आखिर यह व्यक्ति किस मिट्टी का बना है जिसे सामान्य आदमियों की तरह थकान, ईर्ष्या, लोभ कुछ भी नहीं। कभी-कभी तो लगता है यह इस दुनियाँ में जैसे अकेले है।

प्रबोध कैंटीन के एक कोने में लगी कुर्सी में बैठ सुस्ता ही रहा था कि एक नौजवान आ टपका। बहुत विनम्र भाव से नमस्कार कर बोला-

'आप चाय के साथ क्या लेंगे?'

'बस केवल चाय।'

'साब! और कुछ लीजिए न।'

नहीं और कुछ नहीं।

वह थोड़ी देर में चाय लेकर आ गया, चाय का कप वापस ले जाते समय बोला- 'कैसी लगी चाय?'

'बहुत अच्छी।'

'खाने में क्या लेंगे साब?'

'क्या-क्या बनता है आपकी कैंटीन में?'

'हुकुम कीजिए सरकार! जो मांगों वो बन जाएगा।'

'सादा भोजन जो भी संभव हो, लेकिन जल्दी।'

'रोटी के साथ चावल, खीर चलेगी सर?'

'बस एक सब्जी, दाल और रोटी।'

इतना सुनकर वह तुरंत गया और आधे घंटे में ही खाना लेकर लौट आया।

'कितने कर्मचारी हैं आपकी कैंटीन में?'

'होंगे बीस-पच्चीस लोग।'

'क्या आप कैंटीन के कर्मचारी हैं?'

'नहीं। मैं कैंटीन का कर्मचारी नहीं हूँ।'

तो मालिक हैं?'

'वह भी नहीं।'

'तो फिर आप?'

'आज ये कैंटीन का लड़का सोवित अकेला पड़ गया था इसलिए उसकी सहायता के लिए आया हूँ।'

'क्या करते हैं आप!' प्रबोध ने विस्मय से पूछा।

'इसी विभाग में छोटी सी नौकरी पर हूँ।'

इतने में दूसरी ओर से आवाज आई।

'मदन भैया!'

'अभी आता हूँ साब।' कहकर वह उठकर चल दिया।

प्रबोध उसके बारे में आसपास बैठे लोगों से चर्चा करने लगा- 'कितना खुश-मिजाज इंसान हैं ये।'

प्रबोध ने उत्सुकतावश उसके बारे में कुछ जानना चाहा तो एक आदमी मुरझायी दबी आवाज से बोला- 'साब! ये अस्पताल कॉलोनी में रहते हैं बहुत दु:खी आदमी हैं।'

'लेकिन ये तो हर वक्त हँसते रहते हैं।'

'यही तो खासियत है मदन भैया की! सब कुछ लुट जाने के बाद भी हँसते रहते हैं, चेहरे पर दु:ख की झलक तक नहीं आने देते।'

'लेकिन ऐसा क्या हुआ इन के साथ?'

प्रबोध ने अब और व्यग्रता से पूछा।

'अच्छा खासा, हँसता-खेलता परिवार था साब इनका। पत्नी सुंदर, सुशील और बच्चे तो इनसे भी दो कदम आगे। इतने सुंदर थे कि क्या कहने, पर भगवान भी तो कभी-कभी साब अन्याय कर देते हैं। परिवार की शादी के लिए ऋषिकेश से उत्तरकाशी जा रहे थे। कार में पूरा परिवार बैठा था। हंसी-खुशी घर से निकले थे बरसात का मौसम था, इनके आगे पीछे बसें व जीपें थी। अभी चंबा को पार किया ही था कि कुछ दूर आगे अचानक ऊपर से पहाड़ टूटा और सीधे कार के ऊपर, आँखों के सामने-सामने हो गया हादसा। नीचे से भी सड़क टूटी और पूरे मलबे के साथ कार नीचे गहरी खाई में पहुँची।

गांव के लोग दौड़े-दौड़े गये सबने बहुत मेहनत की, अपनी जान की परवाह किये बिना कई गांव के नौजवान खाई में कूद पड़े थे। साहस करके लोगो ने ने इस परिवार को निकाला बचाव एवं राहत कार्य में महेंद्र का तो पैर टूट ही गया था। एक तो मरते-मरते बचा, पर गांव वालों की दाद देनी पड़ेगी। ऊपर से पत्थर आते जा रहे थे, किसी तरह मलबे में दबे इन लोगों को निकाला, पत्थरों से बुरी तरह कुचल गये थे। चंबा अस्पताल जाते-जाते बच्चों ने तो दम तोड़ दिया। पत्नी दो दिन तक श्वांस गिनती रही पर वह भी नहीं बच पायी और मदन तो दस दिन बाद होश में आया। बचा भी बेचारा लेकिन सबकुछ खो कर। पूरी दुनिया उजड़ गयी मदन की।

अस्पताल में पड़े-पड़े छः महीने तक तो किसी ने इन्हें भनक भी न लगने दी कि इनका सबकुछ बर्बाद हो चुका है। थोड़ा होश आया और ठीक होने लगे तो बच्चों और पत्नी को ढूंढा। लोग झूठ बोलते रहे ठीक हो जाओ, सब ठीक है। परिवार का कोई भी सदस्य दिखाई नहीं दिया तो उसकी समझ में आने लगा कि सबकुछ ठीक नहीं है। उस दिन सुरेश चाचा को जब मदन ने जबरन पूछा तो चाचा की आँखों से टपकते आंसुओं से मदन को अनुमान लग गया कि उसके भाग्य से सब कुछ छिन गया है। बस वो दिन है कि आज का दिन, मदन भैया की पूरी दुनिया बदल गयी। इस अस्पताल को ही उसने अपना घर, अपना मंदिर और अपनी दुनिया बना दिया है। अस्पताल में दुनियाँ का कहीं का भी कोई आदमी पहुंचता है, मदन उसकी सेवा में पहले तत्पर दिखता है। गरीबों की सेवा और अनाथ बच्चों का भरण-पोषण तथा उनकी लिखाई-पढ़ाई में उसने अपने चौबीसों घंटे लगा दिया है। अस्पताल में गरीबों के तो ये मसीहा हो गये। कुछ भी करेंगे, कहीं भी जाएंगे लेकिन पूरी मदद करते हैं, चाहे किसी को खून की बोतल की जरूरत हो या बड़े ऑपरेशन के लिए पैसों की मदद, हर जगह मदन ही मदन दिखाई देता हैं। अपनी जमीन-जायदाद बेचकर एक मदिर और एक धर्मशाला बनाई है। अपनी तनख्वाह के अलावा अन्य से भी वह लोगों की मदद करवाता है। हर वक्त हँसते रहना व काम में मस्त रहता है। अस्पताल के सारे डॉक्टर और जिले के बड़े-बड़े अधिकारी भी बहुत इज्जत करते हैं मदन भैया की। करे भी क्यों नहीं, क्या है उसका अपना सब कुछ तो स्वाहा कर दिया उसने।'

कहते-कहते उनकी आँखों मे आँसू उमड़ आए- 'साब! कुछ नहीं है जिंदगी? चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात! जितना किसी के लिए अच्छे बन सकें वहीं है जिंदगी, बाकी तो सब कुछ खाक है। जाने किस समय धोखा देकर चली जाये जिंदगी...।'

नियति

पहाड़ के फेनिल झरनों, ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के आँचल में पला-बढ़ा बचपन आखिरकार प्रकृति के सुरम्य एवं चित्ताकर्षक सौंदर्य के मोहपाश में बंधने से कैसे बच सकता था। अखिलेश इन घने जंगलों से गुजरते हुए सोचने लगा कि बचपन में दोस्तों के साथ इन रास्तों से आते-जाते इतना आकर्षण उसे कभी महसूस नहीं हुआ था। उसे लग रहा था कि जैसे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की झुकती टहनियाँ बाहें पसार कर उसका आलिंगन कर रही हों। वैसे गांव पहुंचने के लिए अभी तक मीलों की सीधी चढ़ाई का सफर पार करना था। यूं तो धूप भी काफी थी लेकिन इस घने जंगल से सूर्य की किरणें धरती को नहीं छू पा रही थी। जिससे गर्मी का अहसास नहीं हो पा रहा था। आधी चढ़ाई तो प्रकृति की सुरम्यता में खोकर पार हो गयी।

'कुछ देर रुकें? अखिलेश ने दिलबर से लंबी सांस लेते हुए पूछा।

'थोड़ी दूर आगे तिराहे पर बैठेंगे जहाँ हम दोनों पलसारी के दोस्तों की प्रतीक्षा किया करते थे।' दिलबर ने स्कूल के दिनों की याद करते हुए कहा।

कुछ और आगे चलने के बाद बांज-बुरांस की छांव तले स्थित उस तिराहे पर जहाँ स्कूल के दिनों की अनगिनत यादें खुद ब खुद अपनी कहानी बयां कर रही थी, वहीं बांज के बड़े-बड़े पेड़। नीचे घिसा हुआ रास्ता, सामने वहीं विशाल पाषाण सिला, जिसके ऊपर बैठ के तरह-तरह की आवाजें निकाला करते थे और आवाजें सामने कठुंड़ के झाडे से टकरा कर वापस आती सी प्रतीत होती थी, तो रोमांच और बढ़ जाता।

'तुझे याद है न स्कूल के लिए देर होते हुए भी हम जब तक पलसारी के विक्रम व योगेश्वर नहीं आ जाते थे तब तक स्कूल नहीं जाते थे, दिगंबर बोला।

'हाँ और वो लोग भी हमारे बिना आगे नहीं जाते थे, पर कितनी ही बार स्कूल देर में जाने पर सजा मिलती थी।'

अखिलेश ने पुरानी यादों में डूबते हुए अति भावुक स्वर में कहा।

विक्रम कितना होशियार था पढ़ने में। कक्षा में ही नहीं पूरी स्कूल में सबसे आगे रहता था। पढ़ाई-लिखाई में तो था ही, साथ ही साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों व खेल-कूद प्रतियोगिताओं में भी अव्वल आता था।

माँ का अकेला बेटा था। कोई भाई-बहन नहीं, पिता जब गुजर गये जब वह बहुत छोटा था। घर व खेती के काम में माँ का हाथ बंटाने के बाद भी जब वह हर बार कक्षा में प्रथम आता था तो सभी अचंभित हो जाते थे।

कक्षा में गुरुजी कहते थे विक्रम थोड़ी सी बुद्धि बाकी लोगों में बाँट दे तो सब पास हो जाएंगे।

आठवीं पास करने के बाद से ही उसे छात्रवृत्ति मिलने लगी थी उसी के सहारे उसने हाईस्कूल की परीक्षा न केवल प्रथम श्रेणी में सम्मान सहित उत्तीर्ण की वरन प्रदेश की योग्यता सूची में भी पहला स्थान पा लिया था।

छात्रवृत्ति की राशि कुछ बढ़ जाने पर विक्रम की पढ़ाई की राह कुछ आसान तो हुई लेकिन गांव से दूर कमरा लेकर रहना भी उसके लिए इतना आसान नहीं था फिर भी वह कमरा किराये पर लेकर गांव से दूर के इंटर कॉलेज में दाखिला ले चुका था। लेकिन उसे हर शनिवार को माँ की देख-भाल के लिए गांव आना पड़ता था।

'कहाँ खो गया तू!' दिलबर ने अखिलेश से पूछा तो वह चौंककर वर्तमान में लौट आया।

'विक्रम कहाँ है आजकल! बहुत दिनों से उसकी कोई खबर नहीं मिली।

'अरे! तूने नहीं सुना विक्रम के बारे में? अब वो इस दुनिया में नहीं रहा।'

यह सुनते ही अखिलेश का तो मुंह खुला का खुला ही रह गया।

'क्या कह रहा है तू? पागल हो गया है क्या?'

और दिलवर ने मूक सिर हिलाते हुए भारी मन से हामी भारी कि सच में ही विक्रम अब इस दुनिया में नहीं रहा। थोड़ी देर तक दोनों के बीच बिलकुल सन्नाटा छाया रहा। दोनों कभी एक दूसरे को आपस में घूर-घूर कर देखते तो कभी जंगलों की ओर निहारते और कभी ऊंची-ऊंची चोटियों की ओर नजरें डालते। ऐसा लग रहा था मानों प्रकृति से पूछ रहे हों कि आखिर ऐसा क्या है कि जो अच्छा इंसान है वह अधिक दिनों तक....

विक्रम की सौम्यता और उसके विनोदी स्वभाव के साक्षी है ये जंगल, ये बांस-बुरांस और काफल के पेड़। ये गाद गधेरे उसके साहस का प्रमाण देते हैं। जब बरसात के दिनों में घुटनों से ऊपर तक आये पानी को भी वह साहसपूर्वक पार कर लेता था और अपनी परवाह किए बिना एक-एक करके अपने सभी साथियों का हाथ पकड़कर पार कराता था। ये खड़ी चढ़ाई, जब चलते-चलते सांस फूल जाती थी सब हाँफते-हाँफते कुछ कहने की स्थिति में नहीं होते थे तब विक्रम ही तो था कि एक पर एक चुट्कुले सुनाकर हम लोगों को हँसाता था और कब चढ़ाई पार हो गयी कुछ भी तो पता नहीं चलता था।

'अरे! क्या खेल है भगवान का...।' कहते-कहते दोनों धम्म से वहीं बैठ गए।

अखिलेश ने दिलवर का हाथ पकड़कर नाराजगी जताई- 'आखिर एक पत्र तो लिख देता तू मुझे, अरे एक फोन ही कर देता, सूचना भर देने में क्या हो जाता, मैं कर भी क्या सकता था पर बता तो देता...' कह कर एक बार अखिलेश अंतर्मुखी हो जैसे अपने से ही कुछ सवाल करने लगा था।

फिर बोला-

'आखिर ये सब कैसे हुआ?'

मुझे भी तो कई महीनों बाद तब पता चला जब खुशाल चाचा शिवानी की शादी में गांव से दिल्ली आये थे, उन्होंने ही बताया कि विक्रम पहले तो सरकारी नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारता रहा, जब सरकारी नौकरी हाथ नहीं लग पायी तो लुधियाना किसी फैक्ट्री में काम करने लगा था। उस काम में मेहनत बहुत थी और छुट्टियाँ कम, इसीलिए विक्रम माँ को भी अपने साथ ले गया था। क्योंकि माँ घर पर अकेली थी, घर पर और स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। खुली हवा में रहने वाली माँ को लुधियाना की अंधेरी कोठरी की घुटन सहन नहीं हुई और वो और बीमार रहने लगी। इलाज कराते-कराते विक्रम जब थक हार गया, तो डॉक्टर की सलाह पर उन्हें गांव छोड़ आया। माँ के लिए कुछ भी न कर पाने की चिंता ने उसे भी बीमार बना दिया था। विक्रम तनाव में रहने लगा।

उसी बीच फैक्ट्री में बहुत दिनों से चल रही यूनियन और प्रबंधन के बीच की खाई और बढ़ गयी। कर्मचारियों ने चंद यूनियन वालों के बहकावे में आकर बेमियादी हड़ताल शुरू कर दी। विक्रम ने कुछ लोगों को समझाने का प्रयास भी किया, लेकिन वह उसमें सफल नहीं हो पाया। उधर गांव से खबर आई कि माँ ज्यादा बीमार है तो सूचना पाते ही विक्रम गांव पहुंचा, देखा माँ का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है। इधर माँ को किसके भरोसे और कैसे छोड़े और उधर फिर नौकरी...।

गांव के बड़े-बूढ़े लोगों ने समझाया कि बेटा कमाने लगे हो अब विवाह कर लेना चाहिए तुम्हें! माँ के साथ कोई बोलने वाला नहीं है, हाथ बांटने वाला होगा तो वह ठीक रहेगी। बात विक्रम की समझ में आ गई। आनन-फानन में पास के गांव के एक बिलकुल सामान्य परिवार की बेटी से विवाह भी हो गया। विवाह के कुछ ही दिनों बाद नयी-नवेली दुल्हन को माँ की सेवा में छोड़ विक्रम लुधियाना वापस चला गया। वहाँ जाकर तो उसके पाँवों तले धरती खिसक गयी जब उसे पता चला कि घाटे में चल रही फैक्ट्री को मालिक ने बंद कर कर दिया। ओह! ये काम भी अभी होना था। सब कुछ चौपट हो गया, सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने शुरू हो गये। क्या सोचेंगे ससुराल वाले? फैक्ट्री से मिलने वाला एक मुश्त थोड़ा बहुत पैसा भी न जाने कब तक मिल पाएगा कुछ पता नहीं, उस पैसे के लिए भी न जाने कितना रोना-धोना पड़ेगा।

विक्रम नौकरी के लिए जहाँ भी जाता, चाहे फैक्ट्री हो अथवा दुकान, वे पूछते कि उससे पहले कहाँ काम करते थे। जैसे ही पता चलता कि उस कंपनी में नौकरी करते थे तो तुरंत रास्ता दिखा देते थे।

'भैया आप लोग तो यूनियनबाज हो कहाँ काम करेंगे...? और मुंह लटकाये हर रोज विक्रम वापस कमरे में चला आता था, यहाँ कमरे का किराया भी तो बढ़ने लगा है। कई दिनों तक अपने जूते रगड़ने के बाद भी उसे कहीं भी सफलता नहीं मिली तो थक हारकर वह वापस गांव चला आया। यहाँ गांव के निकट ही उसने छोटी-मोटी दुकान खोलने का मन बना लिया। इधर भाग-दौड़ के कारण विक्रम बुरी तरह टूट गया था, उसमें शारीरिक और मानसिक टूटन भी आने लगी थी।

उसकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह ऐसे समय में क्या करे। एक ओर माँ का बीमार रहना, दूसरी तरफ नौकरी का जाना और तीसरी तरफ अभी नयी-नयी शादी, घर गृहस्थी की बढ़ी जिम्मेदारियाँ।

विक्रम ने साहस जुटाकर किसी तरह गांव के बाजार में श्रीकोटखाल में एक छोटी सी दुकान खोल दी, रात-दिन मेहनत कर उसने दुकान जमा दी। एक साल में विक्रम अब बहुत अच्छा खासा पैसा भी कमाने लगा। उसके चेहरे की रौनक लौट आई थी। माँ भी खुश रहने लगी थी, क्यों न हो खुश, बेटे की शादी कर दी और अब बेटा उसकी आँखों के ही आगे नहीं हैं बल्कि परिवार चलाने लायक पैसा भी कमाने लगा है।

विक्रम ने रात-दिन एक कर दी, सुबह से लेकर रात तक वह मेहनत करता, गांव से श्रीकोटखाल कम भी तो नहीं है, पूरा छः मील है। विक्रम सुबह उठकर तैयार होता और स्कूल के दिनों की तरह सुबह-सुबह श्रीकोटखाल पहुँच जाता। सुबह से पहले दुकान खोलकर देर रात घर लौटता। माँ ने कई बार कह दिया था, इतनी देर रात गांव न लौटा करो, बीच में इतना जंगल है और फिर अंदपुर की धार में लोग कहते हैं बाण-मशाण रहा करते हैं। नौगड़ू की गाड़ में भी तो भूत-पिशाच का डर रहता है। अकेले मत आया करो। पर विक्रम कहाँ मानने वाला था, अकेले-अकेले एक हाथ में बांस का डंडा लिए वह रोज घने जंगल और कई गधेरों को पार कर घर पहुंचता। अब उसे एक अभ्यास सा हो गया था।

आज जैसे मौत उसे बुला-बुलाकर ले जा रही थी। बेटे का नामकरण था, सबने कहा देर भी बहुत हो गयी पुजा-पाठ में अब दुकान में जाने का समय नहीं रहा, पर विक्रम को लगा कि एक दिन भी दुकान बंद क्यों रहे चाहे दो ही घंटा दुकान खुले पर खुलनी चाहिए और वह दोपहर एक बजे दुकान के लिए चल दिया। तीन बजे जाकर दुकान खोली और नित्यप्रति की भांति फिर वहीं रात पड़ने पर विक्रम दुकान बंद कर गांव को वापस लौटने लगा तो लूंगी चाचा का भी आज उसे साथ मिल गया। रास्ते भर दोनों लोग बात करते रहे। लूंगी चाचा नहीं चल पा रहे थे, साथ में बीमार नाती भी तो था, जिसे वे डॉक्टर को दिखाने के लिए लाये थे। आगे-आगे लूंगी चाचा बच्चे को पकड़े चल रहे थे पीछे-पीछे विक्रम। पिनगड गधेरे में विक्रम ने अपना थैला पेड़ की जड़ पर रखा और लूंगी चाचा को कहा कि जरा बाहर हो लूं, आप धीरे-धीरे बढ़ो,

बस चार कदम भी आगे नहीं बढ़ पाये थे कि बाघ न जाने कब से घात लगाये बैठा था ऊपर से छलांग मार सीधे लूंगी चाचा के हाथ से 12 वर्ष के नाती को ऐसा छीना मानो कोई लूंगी चाचा का एक झटके में हाथ काटकर ले गया हो। चाचा ज़ोर से चीखे और उनकी आवाज बंद हो गयी। उन्हें 'बग्याल' लग गयी थी, मुंह से बोलते की कोशिश करते लेकिन शब्द बाहर नहीं निकलते। विक्रम ने चीख सुनी तो वह दौड़कर आया। चाचा क्या हो गया। चाचा बेहोश पड़े थे और बच्चा बाघ के शिकंजे में था। विक्रम ने आव न देखा ताव बस बाघ जैसी लंबी छलांग मारकर वह बाघ के मुंह से बच्चे को छिनने लगा, इस भारी छीना-झपटी में विक्रम ने बच्चे को बाघ के मुँह से बचा तो दिया लेकिन वह बुरी तरह जख्मी हो गया। बाघ के मुँह से छीना गया बच्चा खून से लथपथ था। घायल विक्रम किसी प्रकार उठते-गिरते बच्चे को लेकर ऊपर रास्ते में आया, देखा लूंगी चाचा गायब। चाचा को आवाज दी पर कहीं से भी चाचा की आवाज न सुनाई दी। विक्रम परेशान हो गया। ये हुआ तो क्या हुआ, चाचा तो बेहोश पड़े थे उसने स्वयं यहीं पर देखा था, वहकिसी प्रकार गिरते-उठते, बैठते-बैठते नौगड़ू की धार तक पहुँचा। ज़ोर-ज़ोर से गांव को आवाज दी। लेकर दौड़े देखा विक्रम बेहोश पड़ा है घायल बच्चे ने सारा घटनाक्रम बताया। विक्रम को गांव के लोग रातो-रात अस्पताल ले गये।

विक्रम अस्पताल में जीवन और मौत के बीच जूझता रहा और अंत में मौत से हार गया। गाड-गधेरा सभी जगह ढूँढने के बाद भी लूंगी चाचा का आज तक भी न मिल पाना सबके लिए रहस्य का विषय बना है।

उत्सर्ग

मेंढापाणी की खड़ी चढ़ाई को पार करना माउंट एवरेस्ट पर फतह हासिल करने जैसा था। कमोबेश इन पहाड़ी पगडंडियों की चौड़ाई ज्यूरांगली की आत्मघाती हथेली की मानिंद चौड़ाई लिए, नितांत संकरी व सर्पाकार गलियों से मेल खाती थी। अंतर सिर्फ इतना था कि यहाँ बांज, बुरांस, अय्यर के हने जंगलों को भेद कर सूरज की किरणें भी जमीन नहीं छू पाती थी। इन जंगलों से सटे हुए बुगयलों में दूर-दूर तक विस्मृत कर देने वाली मनोरमता कहीं अन्यत्र वाकई दुर्लभ थी।

इन चित्ताकर्षक बुग्यालों के निचले हिस्से में घने जंगल, दूर-दूर तक भी कहीं आखिर छोर न दिखता। इन्हीं विशाल एवं विस्तृत पहाड़ों को काटकर बनाई गई सड़क। एक बारगी लगता था कि प्रकृति के अकूत सौंदर्य पर मनुष्य द्वारा की गई अवांछित छेड़-छाड़ है। लेकिन फिर लगता था कि मानवीय हलचल के बिना प्राकृतिक सौंदर्य का सोपान कैसे?

इन बीहड़ अभयारण्यों व गिरि कंदराओं के बीच बैठकर जाना किसी स्वर्गिक आनंद से कम न था। खिड़की के शीशों को खोलते ही शीतल मंद बयार के झोंके, सामने दिखते फेनिल झरने, ऊंचाई से गिरते प्रपात, पक्षियों का कलरव इस निस्तब्धता व नीरवता को तोड़ती बस की घो-घो।

यात्रियों में कुछ लोग प्रकृति के इन दिलकश नजारों का आनंद ले रहे थे। पहली बार पहाड़ों की यात्रा करने वालों को भय व रोमांच का मिश्रित अहसास इन संकरी सड़कों पर किंचित जाग उठता था। बस के अंदर कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें बाहरी प्राकृतिक सौंदर्य से कुछ लेना-देना नहीं था। वे अपनी और-और बातों में मशगूल अपने-अपने तर्क-वितर्क गढ़ रहे थे। कुछ देर में जीएमओ की यह सड़क किनारे स्थित एक चाय की दुकान पर रुकी।

ड्राइवर ने झटके से अपना दरवाजा खोल कर उतरते हुए कहा- 'सभी चाय पी लो, आगे फिर बस कहीं नहीं रुकेगी।' बस के रुकते ही कार्तिकेय अपने साथियों के साथ बस से उतर कर चाय की दुकान पर लगे बेंच पर बैठ गया।

'चाचा! चार चाय।' और केतली पर पहले से ही तैयार चाय को पीतल के गिलासों में भर-भरकर थमाते हुए दुकानदार बोला- 'कहाँ से आये हो बेटा?'

'दिल्ली से पहाड़ घूमने आये हैं।'

'अभी-पढ़ते हो क्या?'

'नहीं।'

'क्या करते हो फिर।'

'हम पत्रकार हैं।'

पत्रकार सुनते ही दुकानदार के चेहरे के भाव बदल गए उसके चेहरे से जैसे कोई असह्य पीड़ा व दर्द उमड़ पड़ा हो। ऐसा लगा जैसे इसके अंदर दफन एक दर्द भरी कहानी कुछ बयां कर अपने को हल्का करना चाहती हो।

कार्तिकेय ने काका को कुरेदा- 'हमारा पत्रकार होना अच्छा नहीं लगा आपको?'

'अब तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता!' दुकानदार एक ठंडी सांस लेकर बोला- 'आप लोग क्या लिखते हो? किसके बारे में लिखते हो? क्या गरीब की पीड़ा को कभी देखा आपने? क्या गरीबों को स्थान देते हो आप लोग अपनी खबरों में? अखबारों में? सरकार की चाटुकारिता के अलावा आज कुछ रह गया है क्या? कभी मिशन रही होगी पत्रकारिता, पर आज स्वार्थों में ही सिमट गयी। चुग्गा डालो और खबरें लिखवाओ, खबरें छपवाओ या छिपवाओ। कुछ भी करा लो। मैं देख रहा हूँ कि आज के अखबार हो चाहे पत्रिकाएँ कुछ खास किस्म के सच ही उगल रहे हैं। विज्ञापन पाने की होड़ ने तो आप लोगों की आँख व कानों पर ताले जड़ दिये हैं। बुरा मत मानना बेटा।' फिर थोड़ा सिर हिलाते काका बोले- 'गहरी नींद में सोये हुए को जगाया जा सकता है, लेकिन बेटा ठग नींद में सोये को ढ़ोल-नगाड़ों से भी नहीं उठाया जा सकता।'

काका की बातों से कार्तिकेय को जैसे साँप सूंघ गया था। ठगा सा वह अवाक केवल सफ़ेद दाढ़ी वाले बूढ़े काका की ओर देखता ही रह गया। इस तरह की अप्रत्याशित व बेबाक टिप्पणी से उसे लगा कि यह सामान्य पहाड़ी दुकानदार नहीं वरन परिस्थितियों का मारा एक संवेदनशील व जागरूक नागरिक है, जो व्यवस्थाओं के खोखलेपन का शिकार है लेकिन देश काल व परिस्थितियों पर पैनी निगाह रखता है।

उसने धीरे से काका से पूछा-

'काका अपने बारे में कुछ बताएँगे?'

'क्या बतायें? बताने को कुछ रहा होता हो बताते!'

जब कार्तिकेय ने ज़ोर देकर उनसे कुछ बताने का आग्रह किया तो गंभीर मुद्रा में काका बोले-

'सब कुछ खोकर क्या पाया हमने, मान मर्यादा सभी मिट्टी में मिल गई। हम तो अभागे ही रहे।' यह कहते हुए उनकी आँखों में आँसू छलक आये कार्तिकेय ने झट से काका का हाथ पकड़ा- 'आपको बुरा लगा तो माफ कीजिएगा।'

फिर काका थोड़ा शांत हो गए बातों के साथ-साथ चाय बनाने व लोगों के हाथों पर चाय का गिलास पकड़ाने का काम भी काका करते रहे। इस उम्र में भी लोगों के जूठे बर्तन धोने की काका की क्या मजबूरी हो सकती है यह दिल ही दिल सोच कर कार्तिकेय परेशान हो उठा।

'काका अकेले काम पर जुटे हैं और बच्चे....।' तभी एक आदमी जो पास बैठा था बोला।

'बच्चों ने ही तो धोखा दिया। धोखेबाज निकले दोनों। इस उम्र में बूढ़े माँ-बाप को हमेशा के लिए चौराहे पर छोड़ गये, एक सेना में था जो लड़ाई में शहीद हो गया और दूसरा पत्रकार था जो मुजफ्फरनगर कांड की बलि चढ़ गया।'

सुनते ही कार्तिकेय स्तब्ध रह गया। काका को ढांढस बंधाते हुए बोला 'काका ये तो बहुत बुरा हुआ...।'

बहुत देर तक शांत रहने के बाद चुप्पी तोड़ते हुए काका बोले- 'एक बेटा देश की सेवा में कुर्बान हो गया। उसका मुझे कोई गम नहीं है। वह हमेशा के लिए चला गया ये दु:ख तो कलेजे पर हमेशा रहेगा पर कहीं ऐसा भी सुना तुमने कि जिन लोगों के हाथों में आम आदमी की सुरक्षा की बागडोर हो वो किसी नौजवान को इसलिए मार डाले कि वह अपनी माँ बहिनों की इज्जत बचाने की कोशिश कर रहा हो?'

'काका! माँ बहिनों की इज्जत बचाने वाले को तो हमेशा ही सम्मानित किया जाना चाहिए।' कार्तिकेय बोला।

'मिल गया उसे सम्मान! इससे बड़ा क्या सम्मान हो सकता है। उसको हमेशा के लिए सुला दिया।' यह कहते हुए काका की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी- 'क्या क़ुसूर था उसका? अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ना, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना क्या गुनाह है? लोगों के साथ राज्य मंगाने के लिए दिल्ली जाना क्या स्वतंत्र देश में अपराध है? पर खाकी वर्दीधारियों की गुंडई का शिकार हो गया मेरा बेटा। अरे रोकना भी था उन्हें तो लाठियाँ मारते कम से कम लूला, लंगड़ा, अपाहिज बनकर ही सही पर कैसे भी घर लौटता, मुझे कहने को तो होता कि मेरा एक बेटा जिंदा है। उसका कसूर भी क्या था जब माँ-बहिनों की इज्जत लूटी जा रही थी तो वह कैसे चुपचाप रहता या वहाँ से भाग जाता। पीठ पर गोली नहीं खाई उसने, उन दरिंदों का जमकर मुक़ाबला कर अंतिम क्षण तक वह माँ-बहिनों की इज्जत बचाने के लिए संघर्ष करता रहा। मैं पूछता हूँ- 'निहत्थे व बेकसूर लोगों पर गोलियाँ चलाना कहाँ की मर्दानगी है? बहूँ-बेटियों की इज्जत पर डाका डालना क्या बहादुरी है? वे भूखे भेड़िये कानून के हाथों से भी छूट गए। हमारा कानून इतना बौना है कि अपराधी उसकी पकड़ में ही नहीं आते।' एक गहरी और लंबी सांस लेकर काका बोले।

'मेरे हँसते खेलते परिवार पर न जाने किस की नजर लग गयी। मैं तो अब तक जिंदा लाश रह गया हूँ। मेरे अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही है और उसी प्रतिशोध की ज्वाला ने मुझे शायद जिंदा रखा है। मैं चाहता हूँ कि उन वहशी दरिंदों को सजा मिले जिन्होंने रामपुर तिराहे व मुजफ्फरनगर में पहाड़ की बहू-बेटियों की इज्जत तार-तार की। माँ-बहिनों की इज्जत पर हाथ डालने वाले, किसी कीमत पर नहीं बचने चाहिए।'

काका के स्वर में अब और उग्रता आ गयी थी, कार्तिकेय के पास खड़ा उसका एक मित्र बोला- 'काका कानून तो अपना काम करेगा ही उन्हें सजा जरूर मिलेगी।'

'किस कानून की बात करते हो तुम! कहाँ है कानून? कानून के रखवालों ने ही ऐसा तांडव किया तो कानून रहा कहाँ? माँ-बहिनों की इज्जत बचाने वाले को ही मौत के आगोश में सुला दिया वाह रे- कानून!'

चाचा की बातें सुनकर कार्तिकेय का गला रुँध गया। अपने दो-दो बेटों को खोने का गम झेल रहा है काका। उसके अंदर की आग उसकी आँखों में साफ दिख रही थी। साहस जुटाकर धीरे से कार्तिकेय बोला- 'आपके बेटे का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, आखिरकार इस क्षेत्र के लोगों की राज्य की मांग तो पूरी हो गई है।'

'बाबू साहब! राज्य मिलने के बाद जो उम्मीदें थी उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, हमारे लोग आज भी हताश और निराश हैं। अपना राज्य मिलने के बाद भी वही फटेहाल हैं।'

काका लगातार कहते जा रहे थे।

काका की व्यथा सुन कार्तिकेय का मन व्यथित हो उठा। एक के बाद एक दोनों बेटों को खोना और उसमें भी एक तरफ देश के लिए कुर्बान होने का फक्र तो दूसरी तरफ अपनों के हाथों बेटे को गोलियों से छलनी होने का मलाल। सामने से दिख रहे बर्फीले पहाड़ों की धवलता, प्राकृतिक सौंदर्य की मनोरम छटा कार्तिकेय से जैसे प्रश्न पर प्रश्न कर रहे थे।

तभी बस चालक ने बस में बैठने के लिए आवाज दी, कार्तिकेय जिसके हाथ में चाय का गिलास पकड़ा ही रह गया था, बिना चाय की एक घूंट पिये भारी मन लिए बस में बैठा और किसी गहरी सोच में डूबा।

अविश्वास

डीडीहाट से चलते हुए पहले विलंब हो चुका था। बार-बार पिथौरागढ़ से टेलीफोन पर टेलीफोन आ रहे थे। जितेंद्रदेव कहते- 'पत्रकार वार्ता में कभी देर नहीं होनी चाहिए समय पर नहीं पहुँच सकते थे तो वार्ता नहीं रखनी चाहिए थी। पूरा एक घंटा विलंब हो गया। केशव तुम नहीं समझते कि पत्रकार कितने तुनकमिजाजी होते हैं, बस उन्हें तो बहाना चाहिए। वैसे भी क्यों न हो नाराज, उनका भी तो एक-एक मिनट कीमती है वे समय की कीमत जानते हैं। जल्दी करो...'

'ड्राइवर कार को तेजी से दौड़ाया जा रहा था वह इतनी तेज गाड़ी चला रहा था कि कार में बैठे लोगों की जान निकली जा रही थी, दो-तीन बार तो ऐसा लगा कि इस ऊंची चट्टान वाली संकरी गली में न जाने किस मोड़ पर कार नीचे खाई में चली जाएगी। है भी तो भयंकर रास्ता, थोड़ा टायर नीचे नहीं उतरा कि गाड़ी का अता-पता नहीं चलेगा। आधा किलोमीटर सीधे नीचे नदी है सिर चकरा देने वाली खतरनाक चट्टानें, ऊपर देखने पर सिर से टोपी गिरा देने वाली ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ और उसमें भी यह तंग सड़क...।

कार कई बार आर्मी की गाड़ियों से टकराते हुए बचती तो कभी खतरनाक मोड़ पर ज़ोर से लगते ब्रेक की आवाज गाड़ी में बैठे लोगों की हवा उड़ा देती। बस अब गये नीचे तब गये नीचे... सब सहमें हुए थे और जितेंद्र देव था जिसे इस बात की चिंता ही नहीं हो रही थी। आखिरकार केशव ने कह ही दिया-

'भई तुम किस माटी के बने हो, जान रहेगी तो सब हो जायेगा। इतना भी क्या है कि तुम...' और जितेंद्र देव ने धीरे से मुस्कुराकर केशव की बात को टाल दिया था दुबारा केशव कुछ बोला तो दार्शनिक लहजे में जितेंद्र देव बोला-

'जिस समय जिस बात ने होना होगा कोई टाल सकता है क्या? क्यों परेशान हो केशव! कुछ नहीं होता।' और फिर ड्राइवर की ओर इशारा कर बोला- 'जरा गाड़ी संभालकर चलाओ वीरू...।' वह अपनी बात को समाप्त भी नहीं कर पाया था कि केशव ने अचानक गाड़ी रोकने को कहा...। ड्राइवर ने गाड़ी नहीं रोकी तो केशव को गुस्सा आ गया। वह तिलमिलाते हुए बोला- 'मैंने कहा न गाड़ी रोको?' फिर भी...।'

जितेंद्र बोला- 'क्या हो गया केशव! अब तो ड्राइवर धीरे चला रहा है गाड़ी...।'

'नहीं! वो पीछे विशन सिंह का मकान चला गया दो मिनट वहाँ रुकना था...।

'कौन विशन? '

'अरे नहीं जानते/पहले इस गांव का प्रधान कई सालों तक रहा फिर क्षेत्र पंचायत का सदस्य रहा।'

'कहाँ है वो...।'

'होना कहाँ है, जेल से छूटकर आया है हाल ही में'

'जेल से?' जितेंद्र देव ने आश्चर्य चकित हो पूछा!

'हाँ जेल से।'

'लेकिन क्यों?'

'बताता हूँ आगे चलो...'

और अब गाड़ी आगे चलने के बाद भी जब केशव गुमसुम रहा तो जितेंद्र की बेचैनी बढ़ने लगी- 'क्यों नहीं बोलते भई! क्या हुआ ऐसा जो विशन...।'

केशव धीरे से बोला.... 'राजनीति बहुत खराब होती है, अति महत्त्वकांक्षा भी आदमी को कितना गिरा देती है, कुछ कहा नहीं जा सकता।

विशन पहले से ही बहुत दबंग लड़का है, हर किसी के काम आता है। खराब लोगों से उसकी कभी नहीं बनी। गांव में शराब की भट्टियों को तोड़ने के लिए उसने सारे गांव की महिला-बच्चों को एक कर दिया था। गांव में शराब के चलन ने बच्चों तक में बुरी लत डाल दी थी। विशन समझाते-समझाते थक गया तो उसने पटवारी को लेकर एक दिन गांव की इन भट्टियों को तुड़वा डाला। कुछ लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ, कुछ को पकड़कर पटवारी जेल भी ले गया।

इसी बीच पंचायतों के चुनाव आए तो विरोधियों ने ऊपर कुछ ले देकर प्रधान की सीट महिला आरक्षित करवा दिया, ताकि विशन चुनाव न लड़ सके। क्योंकि सभी को मालूम था कि पूरा गांव एक जुट है महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े सब उसके साथ हैं। प्रधान पर आरक्षित होने पर पूरे गांव में बवाल मच गया, सारे गांव को पता चल गया कि यह सब विशन को रोकने के लिए हुआ है। आनन-फानन में ही पूरे गांव के लोग पंचायती चौक में एकत्रित हुए और सारे गांव ने एकजुट होकर फैसला किया कि हमारी ओर से विशन गांव का प्रधान है, वह जिसका चाहे नामांकन कराये।

विशन ने भरी सभा में सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की और प्रधान के नाम का फैसला गांव को ही करने का आग्रह किया और फिर बोला-

'गांव जिस किसी को भी चुनेगा मैं उसके साथ हूँ। मैं पूरी निष्ठा से उसके साथ काम करता रहूँगा, गांव वालों को कोई परेशानी नहीं होगी।' पर, गांव के लोगों ने जिद्द कर दी कि प्रधानी विशन के घर में ही रहेगी और उन्होंने विशन की पत्नी का नाम प्रधान के लिए सर्व सम्मति से तय कर दिया। विशन नहीं माना, उसने साफ-साफ कह दिया- 'यह सब ठीक नहीं, पहले मैं और फिर मेरी पत्नी।

विशन ने बहुत समझाने की कोशिश की कि यह परंपरा ठीक नहीं है। गांव में बहुत सारी माँ-बहिने हैं जो जिम्मेदार हैं और फिर मैं तो पूरी तरह उनके साथ रहूँगा... पर गांव के लोग थे जो एक नहीं माने।

मौका पाकर विशन का भाई बीच में बोल पड़ा- 'विशन यदि सारे गांव के लोगों की इच्छा है तो उनका निरादर न करो, तुम अपनी पत्नी को नहीं चाहते तो तुम्हारी भाभी तो तैयार है...'

भाई की बात का गांव के दो-चार लोगों ने तुरंत समर्थन भी कर दिया, पर विशन आग बबूला हो गया- 'पूरा गांव मेरा परिवार है, मेरी ही भाभी क्यों? गांव में दूसरी भाभी, चाची, बोडी क्यों नहीं?'

बात बढ़ती चली गयी और गांव के लोगों ने सर्वसम्मति से विशन को अपनी भाभी को ही प्रधान बनाने के लिए विवश कर दिया। दोनों भाइयों में अगाध प्यार था लेकिन उस दिन भाई को लगा जैसे विशन जानबूझकर भाभी को नहीं बनने देना चाहता है। उन्होंने मन में गांठ बांध दी। चुनाव हुआ और भाभी गांव की प्रधान भी बन गयी, पर संबंधों में दरार शुरू हो गयी। गांव की प्रधान बनते ही भाभी और भाई का व्यवहार तेजी से बदलने लगा।

शराब का अवैध धंधा करने वाले लोग अब बहुत खुश थे, वे धीरे-धीरे विशन के भाई वासु को अपने कब्जे में लेने लगे, इस बीच सरकार ने ग्राम पंचायतों पर खूब पैसा बहाया। अब तो वासु और उनकी पत्नी ने विशन को कुछ पूछना ही बंद कर दिया। गांव में बिना पंचों के सलाह के काम होने लगे। जहाँ पहले कभी खडिंजा गांव वालों ने अपने खून पसीने से लगाए थे, अब उन्हीं के ऊपर थोड़ा बहुत काम दिखाकर हजारों रुपयों का वारा-न्यारा शुरू हो गया। गांव के लोग विशन के पास पहुँचे। कई दौर की बैठकें गांव वालों की हुई। प्रधान को पूरे गांव की ओर से लिखित विरोध भी दर्ज कराया गया। विशन ने भी भाई-भाभी को समझाया, लेकिन अब तो गांव में शराब के धंधे करने वालों की चंगुल में फंसी भाभी कुछ समझने को तैयार नहीं थीं। वह उल्टा विशन को ऐसा जवाब देती कि शांत विशन को आग लग जाती थी, भाभी ने एक दिन तो कह दिया-

'मैं अब वो नहीं रह गयी, पूरी दुनिया देख रही हूँ। घर से बाहर भी पाँव रख लिया मैंने, ब्लॉक तक पहुँच है मेरी। मुझे ज्यादा मत समझाया करो, मैं जो कर रही हूँ सब सोच समझकर कर रही हूँ।'

इस प्रकार का जबाब सुनकर विशन को जैसे साँप सूंघ गया था। वह हतप्रभ रह गया, 'भाभी ये क्या बोल रही हो तुम...?'

'मैं जो बोल रही हूँ ठीक बोल रही हूँ।'

'लेकिन भाभी, गांव वालों का बहुत भरोसा है हम पर, आज दिन तक तो हम लोगों ने गांव को एक कर रखा, इस गांव का नाम पूरे इलाके में रोशन किया है। अब इस प्रकार गांव के लोगों के खिलाफ हमारी जिंदगीभर की दुश्मनी है, जो उल्टे-सुल्टे धंधों से गांव को और इलाके को बदनाम करना चाहते हैं उनके हौसले बुलंद होंगे, वे धीरे-धीरे फिर पनपने लगे हैं....।'

अभी विशन अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि भाभी ने बीच में ही रोकते हुए कहा- 'जिन लोगों को तुम दुश्मन कह रहे हो वे अब हमारे हितैषी हैं। पैसे वाले लोग है, तुम खामखाँ उनका विरोध करते रहते हो। तुमने बिना बात पूरे गांव को उनके खिलाफ भड़का रखा है...।'

'लेकिन भाभी उन्हें पूरे गांव के लोगों ने गांव से अलग कर दिया था, आज वे आपके साथ बैठकर गांव सभा के निर्णय लेने लगे हैं। पूरा गांव और गांव के सारे पंच एक तरफ हैं और आप फिर भी उनके साथ मिलकर...'

विशन अपनी बात शालीनता से समझा रहा था कि बड़े भाई वासू को गुस्सा आ गया-

'दो रोटी हम अच्छा खाने लगे हैं तो जलन हो गयी तुझे? अरे आज तक गांव के लोग तुझे पूछते थे, अब तो हमारी पूछ होनी चाहिए? तू क्यों परेशान है? गांव के लोग पूछेंगे तो हमसे पूछें, हम जवाब देंगे उन्हें...।'

विशन भाई को समझाने लगा तो भाई और तिलमिला गये- 'अरे तू ये कहना चाहता है कि तेरी कृपा पर बनी है तेरी भाभी प्रधान! खबरदार आगे कभी ऐसा सोचने की कोशिश भी मत करना।'

विशन अवाक सा रह गया था।

'तो आप गांव की एक बार बैठक तो रख लीजिए?'

'नहीं रखनी है ग्राम सभा की बैठक हमें, हमें जो ठीक लगेगा हम वही करेंगे, राज-काज चलाना हमें भी आ गया है। ऐसे नहीं बिता दिए दो साल।'

विशन की तो पाँवों तले जमीन ही खिसक गई थी, वह मुंह लटकाए वापस आ गया। पर रात भर उसे नींद नहीं आई, आखिर वह क्या करे, गांव वालों को क्या जवाब दे। सारा गांव परेशान है, कैसे कहूँ कि भैया-भाभी अब उसके वश में नहीं रहे? दोनों तरफ अपनी ही बदनामी। सोच-सोचकर वह जैसे पागल सा हो गया था।

दूसरे ही दिन सुबह गांव के पंचों ने विशन को गांव की भरी बैठक में बुला लिया। विशन के सामने सारे गांव ने प्रधान की सारी अनियमितताओं को सामने रखा, लोगों ने सारा गुस्सा विशन के ऊपर निकाला-

'आज दो साल में दो बार भी गांव की बैठक नहीं हुई। गांव का सारा का सारा बजट चौपट हो गया। गांव में उन्हीं लोगों का बोलबाला चल रहा है जिनको कभी पूरे गांव ने गांव से ही अलग कर दिया था। गांव में शराब का बोलबाला और तेज हो गया। स्कूली बच्चे तक शराब पीने लगे हैं। जो गांव इलाके में पूजा जाता था आज बदनामी मिल रही है, गांव से बाहर मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा तुमने हमें...।'

कई घंटों चली बैठक में विशन सिर नीचे कर चुपचाप बैठा रहा, और अंत में बोला- 'सभी लोग एक बार प्रधान जी को सीधी ये बातें कहे तो अच्छा रहेगा'…। यह सुनकर गांव के लोग चिढ़ गये कि जब सारा गांव तुम पर भरोसा करता है तो तुम अपनी भाभी को क्यों नहीं समझा सकते...।

बहस शुरू हो गयी। विशन को पूरे गांव ने जैसे कटघरे में खड़ा कर दिया था कि तुम भी वैसे ही हो गये। तुम पर गांव का भरोसा था, तुम भी बेईमानों से मिल जाओगे, इसकी गांव को कल्पना भी नहीं थी। चारों ओर से विशन पर आरोपों की बौछार होने लगी। कमीशन का पैसा खाने और अपने ऊपर लगे बदनामी की उँगलियाँ उठाते देख विशन तिलमिला गया, लेकिन उसके मुंह से एक शब्द न निकला और उसकी आँखों में आँसू छलक आए। वह चुपचाप उठा और घर पर आकार चारपाई पर कंबल ओढ़, मुंह छिपाकर आँसू बहाने लगा...।

बहुत देर तक सोच-सोचकर उसे लगा कि अब गांव की तरफ से भी वह बदनाम हो गया और इधर भैया-भाभी का ऐसा जवाब, अपने को चौराहे पर खड़ा देखकर वह एक झटके में चारपाई से उठा और सीधे भाई के घर जा पहुँचा। फिर घंटों तक उसने भैया-भाभी के पैरों में पड़कर समझाने की कोशिश की, लेकिन सिर पर पैसे का भूत सवार होने से भैया-भाभी कुछ सुनने को तैयार नहीं हुए। वह वापस लौटा और गांव की पंचायत में उसने अपनी पूरी बात रखकर साफ-साफ कह दिया कि गांव जो भी निर्णय लेगा वह गांव की तरफ रहेगा। उसने जो-जो प्रयास करने थे वे सब विफल हो चुके थे।

दूसरे दिन गांव की बैठक हुई और उस में प्रधान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला लिया गया, एकजुट होकर पूरे गांव ने इसकी ज़िम्मेदारी फिर से विशन के ऊपर डाल दी और सारे पंच तथा एकजुट गांव ने अविश्वास प्रस्ताव पास कर जिला प्रशासन को भेज दिया।

जिला प्रशासन से सब ने जाकर बात भी की पर प्रशासन किसी प्रकार भी प्रधान के खिलाफ कार्यवाही करने को तैयार नहीं दिखा तो पूरा गांव पिथौरागढ़ में धरने पर उतारू हो गया। पूरे गांव के बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष जिलाधिकारी कार्यालय में जाकर धरने पर बैठ गये। जिलाधिकारी ने एक माह के अंदर कार्यवाही का आवश्वासन दिया लेकिन एक महिना क्या चार माह गुजर गये कुछ भी नहीं हुआ।

प्रशासनिक अधिकारी सब कुछ खुलेआम देखने के बाद भी मूक-दृष्टा बने रहे। एक-आध ईमानदार किस्म के अधिकारी दबी जुबान से जरूर कहते- 'क्या करें? ऊपर से दबाव है अपनी नौकरी भी तो बचानी है, पर जो हो रहा है सब गलत है, पर हम तो मजबूर हैं ...' और विशन से जब यह सहा नहीं गया तो वह एक बार फिर प्रतिनिधिमण्डल को लेकर जिलाधिकारी के पास गया। पर वही ढाक के तीन पात। जिला प्रशासन की रटी-रटाई बात...।

निराश होकर फिर वे गांव के लिए लौट आए। रास्ते में विशन को कुछ बदमाशों ने घेरा और मार-पिटाई शुरू कर दी, और उल्टा उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी कि वह उन्हें जान से मारना चाहता था।

पैसे का खेल देखो, ये पैसा क्या-क्या नहीं करवाता? विशन के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो गया। इतने से भी बदमाशों को संतुष्टि नहीं मिली और उन्होंने उसकी भाभी को प्रलोभन देकर एक षड्यंत्र के तहत एक दिन विशन को भाभी के माध्यम से घर पर किसी आवश्यक काम से बुलवाया। विशन को पहले तो शक हुआ, पर विशन ने सोचा आखिर मेरी भाभी हैं, परिवार के संबंध तो नहीं टूट जाते? वह पत्नी को बताकर भाभी के पास पहुँचा। भाभी ने समझाया वह अविश्वास प्रस्ताव को वापस करवाए, जब वह एक नहीं माना तो फिर क्या था भाभी ने नाटक शुरू कर दिया, अपने कपड़े फाड़कर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी-

'कोई तो बचाओ रे मुझे! मेरी इज्जत लुट रही है।'

विशन अवाक- 'भाभी.... भाभी.... ये क्या कर रही हो तुम.... मेरी कुछ तो सुनो!'

लेकिन भाभी क्यों चुप होती उसे तो आज विशन का हिसाब-किताब चुकता करना था, वह चुप होने के बजाय और जोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी और विशन पर जा झपटी और पास रखी लाठी से उस पर प्रहार करने लगी।

गांव के लोग एकत्रित होते कि उससे पहले ही गांव में छिपे गुंडों ने, जो पहले से घाट लगाए बैठे थे भाभी के घर में ही विशन को मार-मारकर अधमरा कर दिया। गांव के लोग दौड़कर नहीं आए होते तो शायद वह जान नहीं बचा पाता।

और फिर पटवारी को लाकर उसे मारी स्थिति में ही उल्टा गिरफ्तार करवा दिया। गांव के लोग चीखते चिल्लाते रह गये कि विशन को जान बूझकर फंसाया जा रहा है वह निर्दोष है। पर पटवारी, कानूनगो थे जो कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने बेरहमी से विशन पर हथकड़ी डालकर उसे गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया।'

एक गहरी सांस लेकर केशव जितेंद्र के कंधे पर हाथ रखकर बोला-

'ऐसी अंधेरगर्दी चल रही है यहाँ, उस पर हत्या करने का प्रयास से लेकर इज्जत लूटने तक का मुकदमा दर्ज करा दिया। आज विशन जेल में है, और पूरा गांव मायूस विशन के जेल से छूटने की प्रतीक्षा में आँख गढ़ाए डरा और सहमा नजर आता है।

गांव वालों की विशन के प्रति अपार सहानुभूति थी। इस बीच पवित्र गंगा-जमुना में न जाने कितना पानी बह गया। हिमालय की श्वेत-धवल बर्फ पिघल कर जाने किस अथाह समंदर में समा गयी, वक्त बीतता चला गया, पर जख्म हरे के हरे रहे। अपनों के ही हाथों गहरी चोट खाये विशन ने तय कर लिया था कि उसकी आधी-अधूरी लड़ाई का शानदार आगाज अब होगा।

वह समझ गया था कि उसकी लड़ाई अपने-परायों से नहीं वरन उन ताकतों से हैं जो समाज को अपने स्वार्थों के खातिर नुकसान पहुंचा रहे हैं। जेल से छूटकर विशन को गांव के लोगों ने सर आँखों पर बैठा दिया, फिर प्रधानी के चुनाव में विशन ने अपनी भाभी की ही जमानत जब्त करवा दी। आज विशन के नेतृत्व में उसका गांव एक आदर्श और समृद्ध गांव की ओर बढ़ रहा है।

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